गद्य संकलन

चप्पल
लेखक - कमलेश्वर

 
 


लेखक परिचय
 

कमलेश्वर बीसवीं सदी के सबसे सशक्त लेखकों में से एक माने जाते हैं। कहानी, उपन्यास, पत्रकारिता, स्तंभ लेखन, फिल्म पटकथा जैसी अनेक विधाओं में उन्होंने अपनी लेखन प्रतिभा का परिचय दिया। कमलेश्वर का लेखन केवल गंभीर साहित्य से ही जुड़ा नहीं रहा बल्कि उनके लेखन में कई तरह के रंग देखने को मिलते हैं। उनका उपन्यास 'कितने पाकिस्तान' हो या फिर भारतीय राजनीति का एक चेहरा दिखाती फ़िल्म 'आंधी' हो, कमलेश्वर का काम एक मानक के तौर पर देखा जाता रहा है। उन्होंने मुंबई में जो टीवी पत्रकारिता की, वह बेहद मायने रखती है। 'कामगार विश्व’ नाम के कार्यक्रम में उन्होंने ग़रीबों, मज़दूरों की पीड़ा-उनकी दुनिया को अपनी आवाज़ दी।

इनकी कहानियों में संघर्षमय जीवन, मानवीय संवेदनाओं, अकेलेपन, अजनबीपन आदि भावों की मार्मिक अभिव्यक्ति मिलती है।

कमलेश्वर की भाषा आम बोलचाल की भाषा है। इनकी भाषा में तत्सम, तद्‌भव के साथ अंग्रेजी के शब्दों का भी सहजता के साथ प्रयोग किया गया है।

प्रमुख रचनाएँ - वही बात, आगामी अतीत, एक सड़क सत्तावन गलियाँ,

                        डाक बंगला, कस्बे का आदमी, माँस का दरिया, राजा

                        निरबंसिया, इतने अच्छे दिन आदि।


शब्दार्थ

विराट्‌ - विश्वव्यापी
वारिस - उत्तराधिकारी
अमूर्त - जिसका कोई आकार न हो
परम्परा - रीति, प्रथा
संगीन - गम्भीर
आई.सी.यू. - गम्भीर रूप से बीमार व्यक्ति की देखभाल के लिए कक्ष
फ़र्ज - कर्त्तव्य
कृत्रिम - बनावटी
सघन - घना
क्षमता - योग्यता
निकष - कसौटी
द्‌वंद्‌व - संघर्ष
भौतिकता - सांसारिकता
समवेत समानता - सबको एक दृष्टि से देखने का भाव
वीतराग - अनासक्ति


प्रश्नोत्तर

लिफ़्ट बंद हुआ और नीचे उतर गया वार्ड ब्वॉय बच्चे की कुर्सी को पुश करता हुआ ऑपरेशन थियेटर वाले बरामदे में मुड़ गया; नर्स उसके साथ ही चली गयीउसका बाप धीरे-धीरे उन्हीं के पीछे चला गया तब मुझे याद आया कि मुझे तो सातवीं मंजिल पर जाना है  

 

(i)किसको, कहाँ की सातवीं मंजिल पर जाना था?                      


उत्तर लेखक को आल इंडिया मेडिकल इन्स्टीट्यूट की सातवीं मंजिल पर जाना था

(ii) वहाँ जाने की सलाह उसे किसने और क्यों दी थी?                       


उत्तर लेखक को आल इंडिया मेडिकल इन्स्टीट्यूट जाने की सलाह उसके ठेठ इलाहाबादी मित्र ने दी थी क्योंकि संध्या की बड़ी
आँत काटकर निकाल दी गई थी और उसकी स्थिति अगले अड़तालीस घंटे तक नाज़ूक बनी हुई थी

(iii) वहाँ पहुँच कर उसका मन किस भाँति, क्या विचार कर रहा था और क्यों ?                                

उत्तर जब लेखक आल इंडिया मेडिकल इन्स्टीट्यूट पहुँचा तब उसका मन बहुत दार्शनिक हो उठा और उसके मन में कई तरह के विचार उत्पन्न होने लगे जैसे कि इस दुनिया में कितना दुख और कष्ट है,जिसे सहते हुए निरन्तर एक लड़ाई मृत्यु के खिलाफ चल रही हैइस दुनिया में दूध, खून और आँसुओं का रंग एक जैसा है ठीक उसी प्रकार दुख, कष्ट और यातना के रंगों में बँटवारा संभव नहीं हैलेखक के मन में उपर्युक्त विचार इसलिए उत्पन्न हो रहे थे क्योंकि वह मानव सभ्यता का वारिश होने के नाते संवेदनशील हृदय रखता है जिसमें मानव जाति के लिए दया और परदुखकातरता की भावना भरी हुई है

   
(iv) इस समय बच्चे की दशा कैसी है? यहाँ आने के बाद बच्चे के लिए, उसकी कौन सी प्रिय वस्तु अर्थहीन हो जाती है ? कैसे?                                         

 उत्तर वह अस्पताल की एक बहुत बड़ी-सी धारीदार कमीज़ पहने हुए हैउसे उसके पिता ने गोद में उठा रखा हैउसके पैरों में छोटी-छोटी नीली हवाई चप्पलें थीं जो गोद में होने के कारण उसके छोटे-छोटे पैरों में उलझी हुई थींउसे बैठने में कष्ट हो रहा थावह दर्द तो अनुभव कर रहा था परंतु उसे दर्द के कारण का बिल्कुल भी आभास नहीं था

सड़क दुर्घटना में उस बच्चे की एक जाँघ की हड्डी टूट गई थी जिसे ऑपरेशन करके काट दिया गयाबच्चे को अपनी नीली हवाई चप्पलों से विशेष लगाव है लेकिन एक टाँग कट जाने के कारण उसकी वह प्रिय वस्तु अर्थहीन हो गई  

 
 
खेल
लेखक - जैनेन्द्र













लेखक परिचय
प्रेमचंदोत्तर उपन्यासकारों में जैनेंद्रकुमार (२ जनवरी, १९०५- २४ दिसंबर, १९८८) का विशिष्ट स्थान है। वह हिंदी उपन्यास के इतिहास में
मनोविश्लेषणात्मक परंपरा के प्रवर्तक के रूप में मान्य हैं।
इन्होंने कहानी में घटना के माध्यम से पात्रों का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण किया। जैनेन्द्र की कहानियों में व्यक्ति की प्रधानता है।
 जैनेंद्र की उच्च शिक्षा काशी हिंदू विश्वविद्यालय में हुई। १९२१ में उन्होंने विश्वविद्यालय की पढ़ाई छोड़ दी और कांग्रेस के असहयोग आंदोलन में भाग लेने के उद्‌देश्य से दिल्ली आ गए। कुछ समय के लिए ये लाला लाजपत राय के 'तिलक स्कूल ऑफ पॉलिटिक्स' में भी रहे।
 जैनेंद्र के नारी पात्र प्रायः प्रधानता लिए हुए होते हैं। लेखक ने अपने नारी पात्रों के चरित्र-चित्रण में सूक्ष्म मनोवैज्ञानिक दृष्टि का परिचय दिया है। स्त्री के विविध रूपों, उसकी क्षमताओं और प्रतिक्रियाओं का विश्वसनीय अंकन जैनेंद्र ने किया है।
इनकी भाषा सहज, पात्रानुकूल तथा रोचक है जिसमें तत्सम के शब्दों का भी प्रयोग किया गया है।
प्रमुख रचनाएँ - हत्या, पाजेब, अपना-अपना भाग्य, वातायन, एक दिन, सुनीता, त्यागपत्र, सुखदा आदि।

कठिन शब्दार्थ

निहार - देखना
कुटी - झोंपड़ी
दंगई - झगड़ालू
आह्‌लाद - प्रसन्नता
उज्‌जड - गँवार
हास्य रव - हँसी की ध्वनि
विज्ञ - विद्‌वान
कर पात्र - अंजलि
हास्योत्पादक - हँसी उत्पन्न करने वाला
अलौकिक - अद्‌भुत
उद्‌वेग - बेचैन
तत्त्वोपदेश - ईश्वर संबंधी उपदेश


प्रश्नोत्तर
(क)

हमारे विद्वान पाठकों में से कोई होता तो उन मूर्खों को समझाता – “यह संसार क्षण-भंगुर है। इसमें दुख क्या और सुख क्या? जो जिससे बनता है, वह उसी में लय हो जाता है- इसमें शोक और उद्वेग की क्या बात है?”                                                                                  [ICSE-2013]


 (i) पानी से कौन खेल रहा था? वह जब पानी का खेल छोड़कर मुड़ा, तो 
  उसने क्या देखा?

 उ०- पानी से सुरबाला का नौ वर्षीय मित्र मनोहर खेल रहा था। मनोहर एक लकड़ी लेकर नदी के जल को उछालने का खेल खेल रहा था लेकिन जब उसे सुरबाला की याद आई तो उसने लकड़ी को नदी की धारा में फेंक दिया। जब वह सुरबाला की तरफ मुड़ा तब उसने देखा कि सुरबाला अपने बनाए भाड़ को एकटक निहारे जा रही है।

(ii) सुरबाला कौन है? उसके दुख का कारण क्या था?   

उ० - सुरबाला मनोहर की मित्र है। वह सातवें वर्ष में है। उसके मन में निर्माण की भावना है। वह एक कुशल कारीगर की तरह भाड़ बनाती है। वह भाड़ के स्वरूप के साथ-साथ भाड़ के उपयोग की बातें भी सोचती है।
जब सुरबाला के मित्र मनोहर ने बिना कारण के लात मारकर भाड़ को तोड़ दिया तब  सुरबाला बहुत दुखी हुई।
(iii) संसार को क्षण-भंगुर क्यों कहा जाता है? सुरबाला क्या देखकर मौन हो
      गयी थी? उसे किस चीज ने पिघला दिया था?   


उ० -  संसार को क्षण-भंगुर कहा जाता है क्योंकि जहाँ जो जिससे बनता है वह उसी में लय हो जाता है।  यह संसार जल के बुदबुदे जैसा है जो किसी भी क्षण फूटकर जल में ही मिल जाएगा। यह सम्पूर्ण सृष्टि ब्रह्‌मा द्‌वारा बनाई गई है और हम सब परमात्मा-खंड हैं, जिसका एक दिन उसी परमात्मा में विलय निश्चित है। मनोहर द्‌वारा भाड़ तोड़ दिए जाने पर सुरबाला मौन खड़ी रह जाती है। उसके मुख पर जो अपार आनंद का भाव था, वहाँ अब शून्यता फैल गई थी। उसे सबसे बड़ा दुख इस बात का था कि जिस मनोहर को वह स्वर्ग सी सुंदर रचना दिखाकर गर्व का अनुभव करना चाहती थी, उसी ने अपनी लात से उसे तोड़-फोड़ डाला। उस समय वह भारी व्यथा से भर जाती है।   
जब सुरबाला रूठ कर मुँह मोड़ लेती है तब मनोहर को पश्चाताप होने लगता है। वह सुरबाला को मनाने की कोशिश करता है। उसकी आवाज़  काँपने लगती है और सुरबाला मनोहर के स्वर के इस
कम्पन का सामना करने में असमर्थता का अनुभव करती है।  सुरबाला के मन की व्यथा और पीड़ा का अंत हो चुका था। मनोहर के गिड़गिड़ाने से सुरबाला का सारा क्रोध पिघलकर बह चुका था।                                                      
(iv) सिद् कीजिए कि खेल कहानी में बालपन की सरलता का चित्रण
      किया गया है। इस कहानी के माध्यम से लेखक ने किस सत्य को  

   उजागर किया है?           

   उ० - खेल कहानी में दो बच्चों की बाल-सुलभ भावनाओं का अत्यंय सजीव चित्रण किया गया है।  सुरबाला और मनोहर नदी-तट पर खेलते हैं। सुरबाला रेत से भाड़ बनाने का खेल खेलती है और मनोहर लकड़ी से पानी को उछालने  के खेल में व्यस्त है। तत्पश्चात मनोहर सुरबाला द्‌वारा बनाए भाड़  को तोड़ देता है और जब सुरबाला रूठ जाती है तब मनोहर एक वैसा ही भाड़ बनाता है। इस बार सुरबाला मनोहर को सीख देने के लिए वह भाड़ तोड़ देती है। अंत में दोनों बच्चे हिलमिल कर खेलने लगते हैं। अत: ईर्ष्या, खीझ, रूठना-मनाना, छोटी-छोटी बातों को लेकर लड़ना-झगड़ना बाल-जीवन के अनिवार्य व सहज गुण हैं।
लेखक ने दो बच्चों के खेल के माध्यम से जीवन की नश्वरता को दिखाया है। ईश्वर ने इस सृष्टि को नाशवान बनाया है। जो बनता है वह टूटता भी है, इसलिए किसी भी चीज़ के नष्ट होने पर दुखी नहीं होना चाहिए।   

(ख)


" बालिका में व्यथा और क्रोध कभी का खत्म हो चुका था। वह तो पिघलकर बह चुका था। यह कुछ और ही भाव था।"

प्र० - उक्त पंक्तियों का संदर्भ स्पष्ट कीजिए

उ०- जब मनोहर सुरबाला के बनाए भाड़ को एक लात मारकर तोड़ देता है तब सुरबाला मुक खड़ी रह जाती है। वह दुख और क्रोध से भर जाती है, किन्तु मनोहर के पश्चाताप करने, गिड़गिड़ाने और मनाने के कारण सुरबाला का सारा क्रोध और उसकी सारी पीड़ा पिघलकर बह चुकी थी। प्रस्तुत पंक्तियाँ उसी संदर्भ में कही गई हैं।

प्र० – मनोहर का परिचय देते हुए बताइए कि उसने सुरबाला द्‌वारा बनाए गए भाड़ को क्यों तोड़ दिया?

उ० – मनोहर नौ वर्षीय दंगई, उज्‌जड और शरारती लड़का है। वह सुरबाला का मित्र है जो उसके साथ गंगातट पर खेल रहा है। मनोहर अत्यंत चंचल स्वभाव का बालक है। उसमें झगड़ा करने की प्रवृत्ति है। वह भाड़ देखकर ईर्ष्या के भाव से भर जाता है और बिना सोचे-समझे कहकहा लगाते हुए उसे तोड़ देता है।

प्र० – “यह कुछ और ही भाव था।“ – कथन के द्‌वारा लेखक क्या स्पष्ट करना चाहता है?

उ० - जैनेन्द्र की कहानियों में मानव मन की अनेक भावनाओं का सूक्ष्म विश्लेषण होता है। ’खेल’ कहानी में लेखक ने स्त्री मनोविज्ञान को दर्शाने की सफल कोशिश की है। मनोहर के द्‌वारा सुरबाला के बनाए भाड़ को तोड़ देने के बाद सुरबाला अत्यंत क्रोधित और दुखी हो जाती है। वह मनोहर से रूठकर अपना मुँह फेर लेती है। सुरबाला के इस व्यवहार से मनोहर परेशान हो जाता है। उसे अपनी गलती का अहसास होने लगता है और वह सुरबाला को मनाने की भरसक कोशिश करता है। उसकी आवाज काँपने लगती है, उसके मन में पश्चाताप है। सुरबाला मनोहर के स्वर के इस कंपन का सामना नहीं करना चाहती क्योंकि उसके मन से सारा क्रोध और दुख पिघलकर बह चुका है। उसके मन में अब किसी तरह अपना मान जारी रखने और मनोहर को सबक सिखाने का है। सुरबाला के मन में मनोहर के गिड़गिड़ाने का उल्लास था, जो ब्याज-कोप का रूप धर रहा था। लेखक ने इसी भाव को स्त्रीत्व की संज्ञा दी है।

प्र०- सुरबाला के रूप में स्त्री वर्ग की प्रवृत्ति का परिचय दीजिए।
उ०- ’खेल’ कहानी में लेखक जैनेन्द्र ने सुरबाला के माध्यम से स्त्री वर्ग का प्रतिनिधित्व किया है। कहानी में सुरबाला सात वर्षीय बालिका है जो अपने मित्र मनोहर के साथ गंगातट पर रेत से भाड़ बाने का खेल खेल रही है। सुरबाला के चरित्र में स्त्री की सारी प्रवृत्तियों के दर्शन होते हैं। सुरबाला शांत, निर्माणकारी, संयमी, दयाशील, क्षमाशील, रचनात्मक, कल्पनाशील, भावुक और ममतामयी है। जिस प्रकार एक माँ पूर्ण सतर्कता के साथ अपने नवजात शिशु को बिछौने पर सुलाती है ठीक वैसे ही सुरबाला भी अपने पैर को रेत के भाड़ से धीरे-धीरे बाहर निकालती है और एक माँ की तरह उस भाड़ को बच्चे जैसा पुचकारती-सी है। सुरबाला सींक टेढ़ी करके धुँआ निकलने का स्थान बनाकर अपनी कल्पनाशीलता का परिचय देती है और मनोहर को क्षमा करके अपनी दयाशीलता का।




श्रम की प्रतिष्ठा
लेखक - आचार्य विनोबा भावे

लेखक परिचय

आचाय विनोबा भावे का जन्म 11 सितम्बर 1895 में महाराष्ट्र के गागोदा गाँव में हुआ था। इनका वास्तविक नाम विनायक राव भावे था। इन्होंने बचपन में ही गणित और संस्कृत का विशेष अध्ययन कर लिया था। इन्होंने आजीवन अविवाहित रहकर देश-सेवा करने का प्रण लिया और गाँधी जी से प्रभावित होकर सत्य और अहिंसा के सिद्‌धांत पर अपने जीवन को ढाल लिया। विनोबा जी सच्चे गाँधीवादी थे। इन्होंने भूदान, ग्रामदान और सम्पत्ति दान द्‌वारा देश में एक क्रांति लाने का प्रयास किया।  
                                       
सन्‌ 1982 में इनका निधन हो गया।
विनोबा जी अनेक भाषाओं के जानकार थे किन्तु उन्होंने अपनी रचनाओं के लिए राष्ट्रभाषा हिन्दी को चुना। इनकी प्रमुख रचनाएँ हैं -
विनोबा के विचार, गीता प्रवचन, शान्ति यात्रा, भूदान यज्ञ, सर्वोदय यात्रा, जीवन और शिक्षण आदि।

कठिन शब्दार्थ

शेषनाग - सहस्त्र फन वाला सर्प
व्यसन - बुरी आदत, लत
फ़ाज़िल - फ़ालतू या बेकार समय
तालीम - शिक्षा
राजसूय यज्ञ - एक यज्ञ जिसके करने का अधिकार केवल चक्रवर्ती सम्राट
                      को ही होता है।
निष्ठुरता - कठोरता
मेहतर - सफ़ाई कर्मचारी
अपरिग्रही - वस्तुओं का संग्रह न करने वाला

प्रश्नोत्तर

[१]

"सीता का जाना कैसे होगा। मैंने तो उसे दीप की बाती भी जलाने नहीं दी।"
याने यहाँ भी काम की प्रतिष्ठा  मानी नहीं गई। इसमें अच्छाई भी है कि ससुर के घर लड़की गई तो उसे बेटी समान माना, पर मेहनत को हीन माना गया, वह इसमें दिखता है।

(i) कौशल्या सीता को राम के साथ वन क्यों नहीं भेजना चाहती थीं?

उ०- कौशल्या सीता की सास थी। वे सीता को इतना चाहती थीं कि उसे दीपक तक नहीं जलाने देती थीं। सारा काम नौकर-चाकर करते थे। इसलिए कौशल्या सोचती थीं कि सीता वन में जाकर वहाँ के कष्टों को कैसे सहन कर सकेगी।

(ii) राम के वन-गमन के समय सीता ने वन जाने की इच्छा क्यों व्यक्त
      की थी?

उ०- सीता भी राम के साथ वन-गमन करना चाहती थीं क्योंकि उनका मानना था कि पति के साथ के बिना पत्नी का जीवन अधूरा है। यदि उनके पति वनवास के कष्टों को सह सकते हैं तो वे उन कष्टों को क्यों नहीं सह सकती।

(iii) " यहाँ भी काम की प्रतिष्ठा मानी नहीं गई"- इस वाक्य का अर्थ
         समझाकर लिखिए।

उ०- सीता की सास कौशल्या सीता को कोई काम नहीं करने देती थीं, घर का सारा काम नौकर-चाकर करते थे। कौशल्या को इस बात का गर्व था कि उन्होंने अपनी पुत्र-वधु को कभी दीपक तक नहीं जलाने दिया। लेखक ने इस पौराणिक कथा द्‌वारा यह बताने की कोशिश  है कि उस काल में भी कुछ लोग ऐसे थे जिन्होंने शारीरिक कर्म को हीन माना और कर्म की प्रतिष्ठा नहीं की।

(iv) प्रस्तुत निबंध के द्‌वारा लेखक ने क्या कहना चाहा है?

उ०- 'श्रम की प्रतिष्ठा’ निबंध द्‌वारा विनोबा भावे जी ने यह कहना चाहा है कि हर एक इनसान को थोड़ा बहुत श्रम जरूर करना चाहिए। बिना काम किए भोजन ग्रहण करना भयानक पाप है। दूसरा, शारीरिक और मानसिक श्रम में भेदभाव नहीं करना चाहिए क्योंकि दोनों का महत्त्व समान है। अत: दोनों तरह के कार्यों के मूल्य समान होने चाहिए जिससे समाज में श्रम की प्रतिष्ठा हो सके और ऊँच-नीच का भेदभाव समाप्त हो सके। 

[२]

उसके जीवन में पाप है तो आश्चर्य नहीं क्योंकि उसके पास समय फाजिल पड़ा है।

(i) किसके जीवन में पाप बताया गया है ?

उ०- लेखक का विचार है कि जो व्यक्ति काम नहीं करता है और समय की बर्बादी करता है उनके जीवन में पाप का प्रवेश हो जाता है।

(ii) खाली समय वाले व्यक्ति के जीवन पर क्या प्रभाव पड़ता है ?

उ०- जिस व्यक्ति के जीवन में खाली समय होता है, वह शैतानी दिमाग का हो जाता है।  एक कहावत है - खाली दिमाग शैतान का घर। अत: खाली समय वाले व्यक्ति के जीवन में कई तरह के दुर्गुणों का प्रवेश हो जाता है।

(iii) देहाती लोग क्या सोचते हैं और क्यों ?

उ०- देहाती लोग सोचने लगे हैं कि उनके बच्चे पढ़ लिखकर ऐसे काम में लगें, जहाँ शारीरिक काम न करना पड़े, ज्यादा मेहनत न करना पड़े। वे ऐसा इसलिए सोचते हैं ताकि उनके बच्चे उनकी तरह दिन भर शारीरिक श्रम न करते रहें और उनकी तरह सामाजिक प्रतिष्ठा से वंचित भी न रहें।

(iv) मज़दूरों की मानसिकता कैसी बनती जा रही है ?

उ०- मज़दूर की मानसिकता काम से जी चुराने वाली होती जा रही है। पहले काम न करने वालों में काम के प्रति घृणा हुआ करती थी परंतु अब मज़दूरों में भी काम के प्रति घृणा होती जा रही है, वह इसलिए क्योंकि शारीरिक श्रम करने वालों को समाज में उचित सम्मान नहीं मिलता है। उनका मेहनताना भी कम होता है। उन्हें अपने काम पर गर्व महसूस नहीं होता है।


अकेली
लेखिका - मन्नू भंडारी






लेखिका परिचय
मन्नू भंडारी (जन्म ३ अप्रैल १९३१) हिन्दी की सुप्रसिद्‌ध कहानीकार हैं। मध्य प्रदेश में मंदसौर जिले के भानपुरा गाँव में जन्मी मन्नू का बचपन का नाम महेंद्र कुमारी था। लेखन के लिए उन्होंने मन्नू नाम का चुनाव किया। उन्होंने एम० ए० तक शिक्षा पाई और वर्षों तक दिल्ली के मीरांडा हाउस में अध्यापिका रहीं। धर्मयुग में धारावाहिक रूप से प्रकाशित उपन्यास आपका बंटी से लोकप्रियता प्राप्त करने वाली मन्नू भंडारी विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन में प्रेमचंद सृजनपीठ की अध्यक्षा भी रहीं। लेखन का संस्कार उन्हें विरासत में मिला। उनके पिता सुख सम्पतराय भी जाने माने लेखक थे।
मन्नू भंडारी ने कहानियां और उपन्यास दोनों लिखे हैं। एक प्लेट सैलाब' (१९६२), `मैं हार गई' (१९५७), `तीन निगाहों की एक तस्वीर', `यही सच है'(१९६६), `त्रिशंकु' और `आँखों देखा झूठ' उनके महत्त्वपूर्ण कहानी संग्रह हैं। विवाह विच्छेद की त्रासदी में पिस रहे एक बच्चे को केंद्र में रखकर लिखा गया उनका उपन्यास `आपका बंटी' (१९७१) हिन्दी के सफलतम उपन्यासों में गिना जाता है। मन्नू भंडारी हिन्दी की लोकप्रिय कथाकारों में से हैं। इसी प्रकार 'यही सच है' पर आधारित 'रजनीगंधा' नामक फिल्म अत्यंत लोकप्रिय हुई थी । इसके अतिरिक्त उन्हें हिन्दी अकादमी, दिल्ली का शिखर सम्मान, बिहार सरकार, भारतीय भाषा परिषद, कोलकाता, राजस्थान संगीत नाटक अकादमी, व्यास सम्मान और उत्तर-प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा पुरस्कृत।

प्रकाशित कृतियाँ

कहानी-संग्रह :- एक प्लेट सैलाब, मैं हार गई, तीन निगाहों की एक तस्वीर, यही सच है, त्रिशंकु, श्रेष्ठ कहानियाँ, आँखों देखा झूठ, नायक खलनायक विदूषक।
उपन्यास :- आपका बंटी, महाभोज, स्वामी, एक इंच मुस्कान और कलवा,
एक कहानी यह भी
पटकथाएँ :- रजनी, निर्मला, स्वामी, दर्पण।
नाटक :- बिना दीवारों का घर।



प्रश्नोत्तर

संन्यासी महाराज सवेरे से इस आयोजन को देख रहे थे, और उन्होंने कल से लेकर आज तक कोई पच्चीस बार चेतावनी दे दी थी कि यदि कोई बुलाने न आए तो चली मत जाना, नहीं तो ठीक नहीं होगा।

(i) संन्यासी महाराज सवेरे से किस आयोजन को देख रहे थे और उन्होंने
     क्या चेतावनी दी थी और क्यों?

उ०- बुआ सवेरे से अपने देवरजी के ससुरालवालों की किसी लड़की की शादी में जाने के लिए तैयारियों में लगी हुई थी। बुआ ने नई थाली निकाली और उसे क्रोशिये से बने एक मेज़पोश से सजाया। थाली को साड़ी, सिंदूरदानी, एक नारियल और थोड़े बताशे से सजाया। बुआ द्‌वारा किए जा रहे आयोजन को देखकर संन्यासी महाराज ने उन्हें चेतावनी दी कि वह यदि बिना बुलावे विवाह में चली गई तो बहुत बुरा होगा। संन्यासी जी महाराज नहीं चाहते थे कि सोमा बुआ बिना निमंत्रण के किसी भी आयोजन में चली जाए।

(ii) चेतावनी सुनने के बाद बुआ के क्या विचार थे ?

उ०- चेतावनी सुनने के बाद सोमा बुआ के विचार थे कि वह बावली थोड़े ही है कि बिना निमंत्रण के विवाह में शामिल हो जाएगी। पड़ोस की ननद ने लिस्ट में बुआ का नाम देखा था। सोमा बुआ के विचार थे कि शादी में यदि शहरवालों को बुलाया गया है तो क्या समधियों को नहीं बुलाया जाएगा।

(iii)  शादी में जाने के लिए बुआ ने क्या-क्या उपहार खरीदा था ? उसके 
        लिए उन्होंने रुपयों का प्रबंध किस प्रकार किया ?

उ०- शादी में जाने के लिए सोमा बुआ ने राधा भाभी से एक सिंदूरदानी, एक साड़ी और एक ब्लाउज़ का कपड़ा मँगवाया था। उपहार के लिए सोमा बुआ ने अपने मृत बेटे हरखू की एकमात्र निशानी उसकी अँगूठी बेच दी।

(iv) निमंत्रण की प्रतीक्षा में सोमा बुआ की मानसिक स्थिति का वर्णन
       कीजिए। बुआ की प्रतीक्षा का अंत किस प्रकार हुआ ?

उ०-सोमा बुआ को पूर्ण यकीन था कि उन्हें विवाह के अवसर पर जरूर बुलाया जाएगा। उन्होंने विवाह में शामिल होने के लिए पूरी तैयारी भी कर ली थी। सोमा बुआ बुलावे की प्रतीक्षा में छत की दीवार से सटी, गली की ओर मुँह किए एक छाया-मूर्ति की तरह अनमने भाव से खड़ी थी और अपने मन को संयत बनाकर रखे हुए थी।
अंतत: शाम के सात बजे चुके थे और सोमा बुआ को विवाह में शामिल होने के लिए नहीं बुलाया गया और बुआ बुझे दिल से घर के काम में जुट गई।


सच्ची वीरता
लेखक - सरदार पूर्ण सिंह



लेखक परिचय

पूर्णसिंह - एबटाबाद के समीप सलहद ग्राम में १७ फरवरी, १८८१ को आपका जन्म हुआ। पिता सरदार करतार सिंह भागर सरकारी कर्मचारी थे। उनके पूर्वपुरुष जिला रावलपिंडी की कहूटा तहसील के ग्राम डेरा खालसा में रहते थे। रावलपिंडी जिले का यह भाग "पोठोहार' कहलाता है और अपने प्राकृतिक सौंदर्यं के लिये आज भी प्रसिद्‌ध है। पूर्णसिंह अपने माता पिता के ज्येष्ठ पुत्र थे। पूर्णसिंह की प्रारंभिक शिक्षा तहसील हवेलियाँ में हुई। यहाँ मस्जिद के मौलवी से उन्होंने उर्दू पढ़ी और सिख धर्मशाला के भाई बेलासिंह से गुरुमुखी। रावलपिंडी के मिशन हाई स्कूल से १८९७ में एंट्रेंस परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की। सन्‌ १८९९ में डी. ए. वी. कालेज, लाहौर, २८ सिंतबर, १९०० को वे तोकियो विश्वविद्यालय (जापान) के फैकल्टी ऑव मेडिसिन में औषधि निर्माण संबंधी रसायन (Pharmaceutical chemistry) का अध्ययन करने के लिये "विशेष छात्र' के रूप में प्रविष्ट हो गए और वहाँ उन्होंने पूरे तीन वर्ष तक अध्ययन किया। १९०१ ई में तोकियो के "ओरिएंटल क्लब में भारत की स्वतंत्रता के लिये सहानुभूति प्राप्त करने के उद्देश्य से कई उग्र भाषण दिए तथा कुछ जापानी मित्रों के सहयोग से भारत-जापानी-क्लब की स्थापना की। तोकियो में वे स्वामी जी के विचारों से इतने अधिक प्रभावित हुए कि उनका शिष्य बनकर उन्होंने सन्यास धारण कर लिया। तोकियो के आवासकाल में लगभग डेढ़ वर्ष तक उन्होंने एक मासिक पत्रिका थंडरिंग डॉन (Thundering Dawn) का संपादन किया। सितंबर, १९०३ में भारत लौटने पर कलकत्ते में उस समय के ब्रिटिश शासन के विरुद्ध उत्तेजनात्मक भाषण देने के अपराध में वे बंदी बना लिए गए किंतु बाद में मुक्त कर दिए गए। एबटाबाद में कुछ समय बिताने के बाद वे लाहौर चले गए। यहाँ उन्होंने विशेष प्रकार के तेलों का उत्पादन आरंभ किया, किंतु साझा निभ नहीं सका। तब वे अपनी धर्मपत्नी श्रीमती मायादेवी के साथ मसूरी चले गए और वहाँ से स्वामी रामतीर्थ से मिलने टिहरी गढ़वाल में वशिष्ठ आश्रम गए। वहाँ से लाहौर लौटने पर अगस्त, १९०४ ई. में विक्टोरिया डायमंड जुबली हिंदू टेक्नीकल इंस्टीट्यूट के प्रिंसिपल बन गए और "थंडरिंग डॉन" पुन: निकालने लगे। १९०५ में कांगड़ा के भूकंपपीड़ितों के लिये धन संग्रह किया और इसी प्रसंग में प्रसिद्ध देशभक्त लाला हरदयाल और डॉक्टर खुदादाद से मित्रता हुई जो उत्तरोत्तर घनिष्ठता में परिवर्तित होती गई तथा जीवनपर्यंत स्थायी रही। स्वामी रामतीर्थ के साथ उनकी अंतिम भेंट जुलाई १९०६ में हुई थी। १९०७ के आरंभ में वे देहरादून की प्रसिद्ध संस्था वन अनुसंधानशाला (फॉरेस्ट रिसर्च इंस्टीट्यूट) में रसायन (केमिस्ट्री) के प्रमुख परामर्शदाता नियुक्त किए गए। इस पद पर उन्होंने १९१८ तक कार्य किया। यहाँ से अवकाश ग्रहण करने के पश्चात, पटियाला, ग्वालियर, सरैया (पंजाब) आदि स्थानों पर थोड़े थोड़े समय तक कार्य करते रहे। उन्होंने जिला शेखूपुरा (अब पश्चिमी पाकिस्तान) की तहसील ननकाना साहब के पास कृषि कार्य शुरू किया और१९२६ से १९३० तक वे वहीं रहे। नवंबर, १९३० में वे बीमार पड़े। मार्च ३१, १९३१ को देहरादून में उनका देहांत हो गया। हिन्दी में लिखे पूर्णसिंह के केवल छह निबंध ही मिलते हैं। वे हैं : सच्ची वीरता, कन्यादान, पवित्रता, आचरण की सभ्यता, मजदूरी और प्रेम और अमरीका का मस्ताना योगी वाल्ट व्हिटमैन। ये निबंध सरस्वती में प्रकाशित हुए थे और इनके कारण ही सरदार पूर्णसिंह ने हिंदी के निबंधकारों में अपना विशेष स्थान बना लिया है।


शब्दार्थ


धीर - धीरज
सत्वगुण - शुद्‌ध गुण
पिंडोपजीवी - परजीवी
कलाम - वचन
शेखी - डींग
अनहलक - मैं ब्रह्‌म हूँ
सूली - फाँसी
गूढ़ तत्व - गंभीर रहस्य
फरहरा - ध्वज, झंडा
संकल्प - दृढ़ इच्छा शक्ति
अरण्य - जंगल, वन
दरख़्त - पेड़
कंदरा - गुफा
शहंशाह हकीकी - असली राजा
- उपहास, मजाक
चिर - स्थायी
द्‌वैत - दो

प्रश्नोत्तर
(1)
"पुस्तकों और अखबारों को पढ़ने से या विद्‌वानों के व्याख्यानों को सुनने से तो बस ड्राइंग-हाल के वीर पैदा होते हैं। उनकी वीरता अनजान लोगों से अपनी स्तुति सुनने तक खत्म हो जाती है। असली वीर तो दुनिया की बनावट और लिखावट के मखौलों के लिए नहीं जीते।"

  (i) ड्राइंग हाल के वीर से क्या तात्पर्य है? इन वीरों के संबंध में लेखक ने क्या कहा है?

उ०- ड्राइंग हाल में बैठकर अपनी वीरता का डींग हाँकने वाले। ऐसे लोगों की वीरता अनजान लोगों से अपनी स्तुति सुनने तक ही खत्म हो जाती है...।

(ii) मखौलों से क्या अभिप्राय है? सच्चे वीर किसे मखौल समझते हैं ?

  उ०-उपहास...लोगों द्‌वारा अपनी प्रशंसा में लिखे लेख और बनावटी व्यवहार को मखौल का विषय समझते हैं...।

(iii) अनहलक - “अहं ब्रह्मास्मि”, “मैं ही ब्रह्म हूँ” -कहने वाला कौन था? उसका संक्षिप्त परिचय दीजिए।

उ०- मंसूर...858 ई० के आस-पास फारस के तूर शहर में जन्म...सूफी कवि...उनका मानना था कि ईश्वर प्रत्येक मानव में विद्‌यमान है...अब्बासी शासकों ने उसके विचारों को इस्लाम के विरुद्‌ध माना...922 ई० को सूली पर चढ़ा दिया गया...।

(iv) प्रस्तुत पाठ के आधार पर सच्चे वीरों के लक्षण पर प्रकाश डालिए ।

उ०- सच्चे वीर धीर...गंभीर और आज़ाद होते हैं...मन की गंभीरता और शांति समुद्र की तरह विशाल और गहरी होती है...मन आकाश की तरह अडिग...परोपकारी...।
 (2)

"सत्वगुण के समुद्र में जिनका अन्त:करण निमग्न हो गया वे ही महात्मा, साधु और वीर हैं। वे लोग अपने क्षुद्र जीवन का परित्याग कर ऐसा ईश्वरीय जीवन पाते हैं कि उनके लिए संसार के कुछ अगम्य मार्ग साफ़ हो जाते हैं।"




(i) सत्वगुण से आप क्या समझते हैं? इस गुण से युक्त व्यक्तियों


 को क्या लाभ होता है ?




उ०- सत्वगुण का अर्थ है सात्विक गुण, सच्चे विचार और मन की

पवित्रता। जिन मनुष्यों में ये गुण होते हैं, वे अपना जीवन पूरी तरह

से साधु, महात्मा और सच्चे वीरों के समान बना लेते हैं। ऐसे लोग

क्षुद्र जीवन को त्याग देते हैं। जीवन की बुराइयों को छोड़कर

ईश्वरीय जीवन पाते हैं। उनके लिए संसार के अगम्य मार्ग भी साफ़

हो जाते हैं। प्रकृत्ति भी ऐसे लोगों का साथ देती है।




 (ii) सच्चे राजा से लेखक का क्या तात्पर्य है ? उन्हें सच्चा राजा

क्यों कहा जाता है ?


उ०- सच्चे राजा से लेखक का तात्पर्य उनसे है जिनके आदर्श सादा

जीवन, सच्ची वीरता, नि:स्वार्थ प्रेम और जनता की भलाई होते हैं,

जिनके अंदर भय और दुर्बलता नहीं होती। वे अपने प्रेम, सेवा,

करुणा और परोपकार से जनता का दिल जीत लेते हैं इसलिए उन्हें

सच्चा राजा कहा जाता है।




(iii)  लेखक ने झूठा राजा किन्हें बताया है और क्यों?


उ०- लेखक ने झूठा राजा उनको बताया है जो ऐशो आराम का

जीवन बिताते हैं । वे हीरे लाल से जड़े सिंहासन पर बैठते हैं तथा

गरीबों का खून चूसते हैं तथा इस प्रकार की कमाई से वे विलासिता

का जीवन व्यतीत करते हैं । वे साधारण लोगों को डरा-धमकाकर

अपना प्रभाव जमाते हैं। डरकर लोग इनका सम्मान करते हैं।


(iv)  इस पाठ का उद्‌देश्य लिखिए।


उ०- सच्ची वीरता निबंध में लेखक ने सच्चे वीरों के गुणों की

व्याख्या की है। सच्ची वीरता ले लक्षणों को कई उदाहरण

देकर उसी मार्ग पर चलने के लिए पाठकों को प्रेरित किया है।

सच्चे वीर धीर, गंभीर और आज़ाद होते हैं और लोगों को अपने

गुणों से प्रभावित करते हैं। लेखक ने यह बताने की कोशिश की है

कि कमें दूसरों पर आश्रित न होकर अपने भीतर वीरता का विकास

करना चाहिए तथा मानवता के हित के लिए हर तरह के त्याग के

लिए तत्पर रहना चाहिए।

माँ
लेखक - पाण्डेय बेचन शर्मा "उग्र"





लेखक परिचय

हिन्दी कथा साहित्य में पाण्डेय बेचन शर्मा "उग्र" जी का विलक्षण स्थान है। इन्होंने अपने साहित्य के माध्यम से समाज को परिष्कृत और क्रांति-भावना को जागृत करने का प्रयास किया। छोटी उम्र में ही इन्होंने देश के विभिन्न हिस्सों का भ्रमण किया जिससे जीवन की वास्तविक पाठशाला में इनकी असली शिक्षा हुई।
उग्र जी ने समाज की विसंगतियों का यथार्थ चित्रण किया। इनकी रचनाओं में देशभक्ति और क्रांतिकारी विचारों की प्रधानता है। इन्होंने अपनी कहानियों में समाज के दलित-वर्ग को साहित्य का विषय बनाया।
उग्र जी की भाषा बोलचाल की भाषा है। यह पात्रानुकूल है। वाक्य छोटे-छोटे हैं जिसमें मुहावरों का प्रयोग किया गया है।
प्रमुख रचनाएँ - दिल्ली का दलाल, बुधुआ की बेटी, चंद हसीनों
                        के खतूत (उपन्यास)
                        पंजाब की महारानी, रेशमी, पोली इमारत, काल कोठरी,
                        ऐसी होली खेलो लाल, कला का पुरस्कार, चित्र-विचित्र
                        आदि। (कहानी)

प्रश्नोत्तर

" मैं तुमसे नाराज़ हूँ लाल!"

(i) कौन नाराज़ है और किससे?
     उ०- प्रस्तुत कहानी के लेखक जो कहानी में जमींदार की भूमिका में हैं,
अपने पड़ोसी लाल से नाराज़ हैं। लाल के पिता लेखक की जमींदारी में मैनेजर थे। लाल क्रांतिकारी विचारों का युवक है और ब्रिटिश शासन- व्यवस्था का विरोधी है। पुलिस उसके बारे में जमींदार से पूछताछ करती है
जिसकी वजह से जमींदार लाल से नाराज़ हैं।

(ii) उक्त संवाद की पृष्ठभूमि क्या है?
      उ०- लाल देश-भक्त है और जमींदार साहब परम अंग्रेज-भक्त। जमींदार साहब न सिर्फ़ अंग्रेजों की बड़ाई करते हैं बल्कि समर्थन भी करते हैं। उधर लाल  अपने साथियों के साथ देश को अंग्रेजों के अत्याचार से मुक्त करवाने के दिन-रात योजनाएँ बना रहा है। जब यह बात जमींदार साहब को पता चली तब उन्होंने यह संवाद कहा।

(iii) वक्ता के विचार क्या हैं?
       उ०- वक्ता एक जमींदार हैं। वे पीढ़ियों से अंग्रेज सरकार के समर्थक रहे हैं। वे अंग्रेजी शासन-व्यवस्था के प्रशंसक हैं। उनके मन में देश-भक्ति की भावना नहीं है। उनके अनुसार अंग्रेजों का विरोध करना षड्‌यंत्र है। जमींदार साहब का मानना है कि ब्रिटिश सरकार धर्मात्मा, विवेकी और न्यायी है। वे क्रांतिकारियों से नफरत करते हैं।

(iv) श्रोता उक्त संवाद की प्रतिक्रिया में क्या कहता है?
       उ०- श्रोता लाल देश-भक्त और क्रांतिकारी विचारों वाला नवयुवक है। वह जमींदार साहब के उक्त कथन के बाद अपने अडिग लक्ष्य का परिचय देते हुए अंग्रेजों का विरोध करता है। वह कहता है कि वह किसी षड्‌यंत्र में नहीं है लेकिन उसके विचार स्वतन्त्र अवश्य हैं। उसे देश की बुरी दशा और पशु-हृदय वाली गुलामी देखकर क्रोध आता है।
                       

ममता
लेखक - जयशंकर प्रसाद






लेखक परिचय

जयशंकर प्रसाद हिन्दी साहित्य के प्रमुख छायावादी कवि हैं। इन्हें हिन्दी, संस्कृत, पाली, उर्दू, प्राकृत और अंग्रेजी का अच्छा ज्ञान था। इन्होंने इतिहास और दर्शन का गहरा अध्ययन किया। प्रसाद जी ने कविता, कहानी, नाटक, उपन्यास तथा निबंध लिखा।
इन्होंने अपनी रचनाओं के द्वारा भारत की प्राचीन गौरवशाली संस्कृति और सभ्यता को संप्रेषित किया। इनकी रचनाओं में देश-भक्ति, प्रेम-सौन्दर्य और प्रकृति-चित्रण की अभिव्यक्ति हुई है।
जयशंकर प्रसाद की भाषा संस्कृतनिष्ठ हिन्दी है जिसमें तत्सम शब्दों का प्रयोग किया गया है।
प्रमुख रचनाएँ - कविता-प्रेम-पथिक, आँसू, झरना, लहर, कामायनी आदि।
                         नाटक - अजातशत्रु, स्कन्दगुप्त,चन्द्रगुप्त, ध्रुवस्वामिनी
                                       आदि।
                         उपन्यास - कंकाल, तितली,इरावती आदि।
                         कहानी संग्रह - आँधी, इन्द्रजाल, प्रतिध्वनि, छाया आदि।

प्रश्नोत्तर

" अब तुम इसका मकान बनाओ या महल, मैं अपने चिर विश्राम-गृह में जाती हूँ।"

(i) वक्ता का संक्षिप्त परिचय दीजिए।
       उ०- वक्ता ममता कहानी की नायिका है। वह रोहतास के दुर्गपति के मंत्री चूड़ामणि की एकमात्र कन्या है। वह विधवा हो चुकी है। उसके पिता ने उसे बहुत स्नेह से पाला है। वह अत्यंत शांत, गम्भीर, ममतामयी और देशभक्त है।

(ii) किसके लिए क्या बनाने की चर्चा हो रही है ?
      उ०- ममता केलिए भवन बनाने की चर्चा हो रही है। ममता ने चौसा के युद्ध में पराजित हुमायूँ को अपनी झोंपड़ी आश्रय दिया था। उस उपकार का बदला चुकाने के लिए हुमायूँ ने अपने सेनापति मिर्जा को आदेश दिय था कि उस स्थान पर ममता के लिए एक घर बना दे।

(iii) बनवाने वाला कौन है ? उन्हें किसने भेजा था ?
       उ०- बनवाने वाला मुग़ल सम्राट अकबर था। उन्हें हुमायूँ के सेनापति मिर्ज़ा ने भेजा था। मिर्ज़ा को शहंशाह हुमायूँ ने आदेश दिया था कि ममता का घर बनवा दिया जाए क्योंकि उसने विपत्ति में वहाँ विश्राम किया था।

(iv) स्मारक के रूप में क्या बनाया गया  और उस पर क्या लिखा गया ?
       उ०- झोंपड़ी के स्थान पर स्मारक के रूप में एक अष्टकोण  मंदिर बनवाया गया जिस पर लगाए गए शिलालेख पर लिखा गया कि सातों देशों के नरेश हुमायूँ ने एक दिन वहाँ विश्राम किया था। उसके पुत्र अकबर ने उनकी स्मृति में वह गगनचुंबी मंदिर बनवाया है।

मैं और मेरा देश
लेखक - कन्हैयालाल मिश्र ’प्रभाकर’
लेखक - परिचय
कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकर हिन्दी के जाने-माने निबंधकार हैं जिन्होंने राजनैतिक और सामाजिक जीवन से संबंध रखने वाले अनेक निबंध लिखे हैं। इन्होंने भारत की पराधीनता के समय स्वाधीनता आंदोलन में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया, जिसके कारण कई बार जेल भी जाना पड़ा।
लेखक की भूमिका के प्रति उनका दायित्वबोध कितना गहरा था इसका एक उदाहरण देखिये। किसी अवसर पर नेहरू जी ने उनसे पूछा - "प्रभाकर, आज कल क्या कर रहे हो ?" उन्होंने कहा - "आपके और अपने बाद का काम कर रहा हूं।" जब नेहरू जी ने चौंक कर पूछा - "क्या मतलब हुआ इसका ? " तो प्रभाकर जी ने जवाब दिया - "पंडित जी, आज देश की शक्ति पुल, बांध, कारखाने और ऊंची - ऊंची इमारतें बनाने में लगी है। ईंट - चूना ऊँचा होता जा रहा है और आदमी नीचा होता जा रहा है। भविष्य में ऐसा समय अवश्य आयेगा, जब देश का नेतृत्व ऊंचे मनुष्यों के निर्माण में शक्ति लगायेगा। तब जिस साहित्य की जरूरत पड़ेगी, उसे लिख-लिख कर रख रहा हूं।" वस्तुतः साहित्य के माध्यम से प्रभाकर जी गुणों की खेती करना चाहते थे और अपनी पुस्तकों को शिक्षा के खेत मानते थे जिनमें जीवन का पाठ्यक्रम था। वे अपने निबंधों को विचार यात्रा मानते थे और कहा करते थे - "इनमें प्रचार की हुंकार नहीं, सच्चे मित्र की पुकार है, जो पाठक का कंधा थपथपाकर उसे चिंतन की राह पर ले जाती है।"

उनका मुख्य कार्यक्षेत्र पत्रकारिता था। ये ज्ञानोदय के संपादक भी रहे।
प्रमुख रचनाएँ - जिंदगी मुसकाई, माटी हो गई सोना, दीप जले शंख बजे आदि।

कठिन शब्दार्थ

संपर्क - मेलजोल
संचित - इकट्‌ठा
बवंडर - तूफ़ान
गरूर - घमंड
आक्रोश - गुस्सा
कलंक - धब्बा
साक्षी - गवाह
दुर्लभ - मुश्किल से मिलने वाले
निहाल - हर तरह से संतुष्ट
खाट - चारपाई
विवरण - ब्यौरा
क्षति - नुकसान


प्रश्नोत्तर
(1)
यदि इन प्रश्नों का उत्तर हाँ है, तो आप देश के शक्ति-बोध को भयंकर चोट पहुँचा रहे हैं और आपके हाथों देश के सामूहिक मानसिक बल का ह्रास हो रहा है।

(i) हम अपने देश के शक्ति-बोध को किस प्रकार चोट पहुँचाते हैं?

उ०-हमारे द्वारा देश के शक्ति-बोध को तब चोट पहुँचती है जब हम
सार्वजनिक स्थलों  या सार्वजनिक वाहनों में यात्रा करते समय अपने देश की निन्दा करते हैं। अपने देश की बुराई करने से देश की शक्ति कम होती है।

(ii) अन्य देशों की तुलना में अपने देश को हीन क्यों सिद्ध नहीं करना चाहिए?

उ०-जब हम अपने देश की तुलना किसी अन्य देश से करते हैं और अपने देश को हीन साबित करते हैं तथा दूसरे देश को सर्वश्रेष्ठ सिद्ध करते हैं, तब हम अपने देश के शक्ति-बोध को चोट तो पहुँचाते ही हैं साथ ही साथ देश का सामूहिक मानसिक बल कमज़ोर भी करते हैं।

(iii) देश के सौन्दर्य-बोध को किस प्रकार चोट पहुँती है?

उ०-जब हम अपने घर को ,आस-पड़ोस को , अपने मोहल्ले को साफ-सुथरा नहीं रखते हैं और गंदगी फैलाते हैं। सार्वजनिक स्थलों पर थूकते हैं, अपशब्द का प्रयोग करते हैं, मेले-त्योहारों में धक्का-मुक्की करते हैं तब हम अपने देश के सौन्दर्य-बोध को चोट पहुँचाते हैं।

(iv) लेखक परिचय दीजिए।

उ०-कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकर हिन्दी के जाने-माने निबंधकार हैं जिन्होंने राजनैतिक और सामाजिक जीवन से संबंध रखने वाले अनेक निबंध लिखे हैं। इन्होंने भारत की पराधीनता के समय स्वाधीनता आंदोलन में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया, जिसके कारण कई बार जेल भी जाना पड़ा।
उनका मुख्य कार्यक्षेत्र पत्रकारिता था। ये ज्ञानोदय के संपादक भी रहे।
प्रमुख रचनाएँ - जिंदगी मुसकाई, माटी हो गई सोना, दीप जले शंख बजे आदि।

(2)
" दादा आज सर्वोत्तम उपहार तुमने ही मुझे भेंट किया, क्योंकि इसमें तुम्हारे हृदय का शुद्‌ध प्यार है। "

(i) उपहार किसने और किसे दिया था ? उपहार प्राप्त करने वाले ने इसे 
    सर्वोत्तम क्यों बताया ?

उ० - उपहार एक देहाती बूढ़े ने तुर्की के राष्ट्रपति कमालपाशा को उनके 
        वर्षगाँठ पर दिया था। कमालपाशा ने इसे सर्वोत्तम उपहार बताया
        क्योंकि उस उपहार में उसे लाने वाले देहाती बूढ़े का अपार स्नेह और
        शुद्‌ध प्रेम मिला हुआ था।

(ii) हमारे देश में भी इसी प्रकार की एक घटना घटी थी-उसका उल्लेख
     कीजिए।

उ०- हमारे देश भारतवर्ष में भी एक ऐसी घटना घटी थी। एक किसान ने 
       रंगीन सुतलियों से एक खाट बुनी और उसे रेल में रखकर दिल्ली आ
       आ गया। वहाँ से वह किसान खाट को कंधे पर लादकर तत्कालीन
       प्रधानमंत्री पंडित जवाहरललाल नेहरू की कोठी पर पहुँच गया।
       उसने वह उपहार स्नेह के साथ पंडित जी को दिया। पंडित नेहरू जी 
       किसान के स्नेह और समर्पण भाव को देखकर भाव-मुग्ध हो गए
       और अपना एक दस्तख़ती फोटो किसान को उपहार-स्वरूप दिया।

(iii) सौन्दर्य-बोध और शक्ति-बोध से क्या अभिप्राय है ?

उ०- देश का आदर्श नागरिक होने के नाते हमें अपने देश की शक्ति,    
      संप्रभुता ( Sovereignty) और उसके सौन्दर्य का ध्यान रखना चाहिए।
      एक नागरिक होने के नाते ऐसा कोई भी कार्य नहीं करना चाहिए जो
      देश में कमजोरी की भावना को बल दे या कुरुचि की भावना को।
      यदि हम अपने देश की संप्रभुता को बल देते हैं, उसे विश्व में दूसरे 
      देशों से श्रेष्ठ बनाने की कोशिश करते हैं, अपने चरित्र और आसपास 
      के माहौल को साफ-सुथरा रखने की कोशिश करते हैं तो हम अपने
      देश के सौन्दर्य और शक्ति-बोध को  सुदृढ़ बना पाएँगे।
     
(iv) किस प्रकार का देश उच्च या हीन माना जाता है  ?

उ०- किसी भी देश की उच्चता या हीनता की कसौटी चुनाव की प्रक्रिया
       से समझी जा सकती है। जिस देश का नागरिक यह समझता है कि
       चुनाव में किसे अपना मत देना चाहिए और किसे नहीं, वह देश उच्च
       है क्योंकि उसे सही-गलत का अनुमान है। वह निर्णय देने में सक्षम 
       है और जिस देश का नागरिक गलत लोगों के उत्तेजक नारों या
       व्यक्तियों के गलत प्रभाव में आकर मत देता है, वह देश हीन है 
       क्योंकि उसे उचित-अनुचित का फर्क नहीं मालूम। यह बहुत जरूरी
       है कि जब भी देश में चुनाव हो वहाँ के नागरिक को अपने मताधिकार
       का सही इस्तेमाल करना चाहिए। यह उसका नागरिक कर्त्तव्य भी है।

मेरे मास्टर साहब
लेखक - चंद्रगुप्त विद्यालंकार
लेखक - परिचय
चंद्रगुप्त विद्यालंकार हिन्दी के प्रसिद्ध यथार्थवादी रचनाकार हैं। उन्होंने सामाजिक तथा राजनैतिक समस्याओं को अपने साहित्य में उतारा। उन्होंने विदेशी भाषाओं की कहानियों का हिन्दी में अनुवाद भी किया है। उनकी भाषा सहज तथा भाव - संप्रेषित करने वाली है।
प्रमुख रचनाएँ - गोरा, बचपन, संदेह, भय का राज्य, मास्टर जी, तीन दिन आदि।

शब्दार्थ

स्मृतियाँ - यादें
जमात - कक्षा
उस्ताद - अध्यापक
असंबद्‌ध - संबंधहीन
धाक - दबदबा
कायल - प्रभावित
दूभर - कठिन
हितचिंतक - शुभ चाहने वाला
नक्शा - मानचित्र (Map)
सहन - आँगन
अरसा - समय/अवधि
तमंचा - पिस्तौल
क्लेश - दुख
संजीदगी - गंभीरता
फुलवारी - बगीचा
लाज़मी - जरूरी
सिफारिश - पैरवी (Recommendation)

प्रश्नोत्तर
जब मेरा जन्म भी नहीं हुआ था, तब से वे इस स्कूल में शिक्षक का काम कर रहे हैं वे तो स्थिर रहे हैं, परन्तु उनकी आयु उनकी तरह स्थिर नहीं रह सकी |
 (i) यहां किस के विषय में बात की जा रही है ? उसका लेखक के साथ
क्या संबंध है

उ० - यहाँ लेखक के प्रिय मास्टर साहब के विषय में बात की जा रही है।
        उनका लेखक के साथ गुरु तथा शिष्य का संबंध है। आज लेखक उसी
        विद्‌यालय का प्रधानाचार्य बनकर आया है और उसके मास्टर साहब
        अब भी शिक्षक के पद पर कार्य कर रहे हैं।

(ii) मुख्याध्यापक के रूप में लेखक का विद्यालय में कैसा प्रभाव था ?
उ०- लेखक मुख्य अध्यापक बनकर उसी विद्‌यालय में आ गए थे जहाँ से
       वह बचपन में पढ़कर गए थे। मुख्य अध्यापक बन जाने के बाद
      लेखक का विद्‌यालय में बहुत प्रभाव था। विद्‌यालय के सभीे विद्‌यार्थी
      लेखक की बात भी मानते थे तथा सम्मान भी करते थे। लेखक कड़े
     अनुशासन के हिमायती थे इसलिए विद्‌यार्थी समय से विद्‌यालय आते
     थे, सभी की वेशभूषा सही होती थी, विद्‌यालय में शांति रहती थी तथा
     सभी उस्ताद खड़े होकर पढ़ाते थे।

(iii) मुख्यध्यापक बनने के बाद भी लेखक अपने प्रिय मास्टर साहब के साथ किन-किन बातों का ध्यान रखते थे ? लेखक की नियुक्ति का मास्टर साहब पर क्या प्रभाव पड़ा?

उ०- लेखक अध्यापक बन गए और उनके प्रिय मास्टर साहब भी उसी
       विद्‌याल्य में थे लेकिन लेखक के प्रधानाचार्य बनने के बाद भी 
       उन्होंने मास्टर साहब की इज्ज़त में कोई कमी नहीं आने दी। मास्टर
       साहब बूढ़े हो गए थे इसलिए जमात में बैठकर पढ़ाते थे और लेखक 
       भी ये बात जानते थे इसलिए कभी उनकी कक्षा में नहीं जाते थे
       क्योंकि वह जानते थे कि उनके जाते ही मास्टर साहब को खड़ा होना
       पड़ेगा। वह कक्षा में देर से जाते थे तब तक बच्चे शोर मचाते थे तब 
       भी लेखक उन्हें कुछ नहीं कहते थे। लेखक की नियुक्ति से मास्टर
       साहब प्रसन्न भी थे और खिन्न भी।
       
(iv) “गुरु-शिष्य परम्पराको वर्तमान समय ने किस प्रकार प्रभावित किया है ? “गुरु- शिष्य परम्पराके आदर्श रूप को बनाए रखने के लिए क्या उपाय किए जाने चाहिए?
उ०- आज गुरु के प्रति सम्मान कम हो गया है। आज का विद्‌यार्थी केवल 
    आँखों के सामने इज्ज़त करता है और पीठ पीछे बुराई करता है।
   कभी-कभी तो विद्‌यार्थी धृष्टता के साथ पलट कर जवाब भी दे देता है। 
   गुरु-शिष्य परम्परा के आदर्श रूप को बनाए रखने के लिए शिक्षकों 
   तथा विद्‌यार्थियों दोनों की ओर से प्रयास किया जाना चाहिए।
   अध्यापक को केवल धन लेकर ही अध्यापन को अपना ध्येय नहीं 
   समझना चाहिए। विद्‌यार्थी से भावानात्मक संबंध भी बनाने चाहिए।
   विद्‌यार्थी को ज्ञान देने वाले शिक्षक का हृदय से सम्मान करना चाहिए।











4 टिप्‍पणियां:

  1. Namaste sir.
    Mujhe humaari kahani, khel, par kisi tarah ke prashna uttar nahi dikhai diye. Kripya meri madad kar dijiye.
    Dhanyavad.

    जवाब देंहटाएं
  2. Namaste sir,
    mujhe class 7 ke anokha horn par information aur prashn uttar chaviye kripya madad kare aur vh lagaye.
    Dhanyavad

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. मुदित,
      मैं आपके आग्रह पर शीघ्र ही जरूरी कदम उठाऊँगा।

      हटाएं
  3. Up बोर्ड हाई स्कूल में एक पाठ था अहम ब्रह्मस्मि उसके बारे में प्रकाश डालिये

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