आदर्श उत्तर - कथा सुरभि

बूढ़ी काकी

प्रेमचंद




प्रश्न - "बुढ़ापा बहुधा बचपन का पुनरागमन हुआ करता है।" बूढ़ी काकी के चरित्र द्‌वारा प्रस्तुत कथन को स्पष्ट कीजिए।    

दिशानिर्देश:- उत्तर लिखते समय निम्नलिखित बातों का ध्यान रखिए-
                   
                   
            (i)   उत्तर की शुरुआत संक्षिप्त कवि/लेखक परिचय से कीजिए।
            (ii)  उत्तर में उद्‌धरण का प्रयोग कीजिए।
            (iii) उत्तर प्रश्न के अनुकूल होना चाहिए।
           (iv) उत्तर का समापन उपयुक्त उपसंहार/निष्कर्ष से होना चाहिए।
            (v)  भाषा की सहजता और शुद्‌धता अनिवार्य शर्त है।


उत्तर - प्रेमचंद द्‌वारा रचित "बूढ़ी काकी" हिन्दी साहित्य की श्रेष्ठ कृतियों में से एक है।हिन्दी कथा-साहित्य में प्रेमचंद का स्थान अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। प्रेमचंद को हिन्दी का कथा-सम्राट भी कहा जाता है। प्रेमचंद ने अपने कथा-साहित्य के माध्यम से राष्ट्रीय आंदोलन, किसान-मज़दूर, स्त्री-दलित तथा हिन्दुस्तानी भाषा का मुद्‌दा उठाया। इन्होंने अपनी रचनाओं में समाज के सबसे कमज़ोर व्यक्ति की आवाज़ को बुलंद किया। प्रेमचंद ने अपनी रचनाओं द्‌वारा भारतीय स्त्रियों की दयनीय दशा को अभिव्यक्त करने का सराहनीय कार्य किया है। इनकी भाषा सहज तथा हिन्दी-उर्दू के आसान शब्दों के मिश्रण से बनी है। प्रेमचंद की प्रमुख रचनाएँ - गोदान, गबन, रंगभूमि, सेवासदन, निर्मला (उपन्यास) दो बैलों की कथा, कफ़न, पंच-परमेश्वर, नशा, बूढ़ी काकी (कहानी) आदि हैं।
प्रेमचंद की प्रसिद्‌ध कहानी "बूढ़ी काकी" भारतीय समाज में वृद्‌धों की दयनीय दशा पर भावनात्मक टिप्पणी करती है तथा यह दर्शाने की भरसक कोशिश करती है कि वृद्‌धों का मन भी बच्चों की तरह कोमल व सरल हो सकता है। उन्हें भी बच्चों की तरह प्यार और अपनेपन की जरूरत होती है। जिस प्रकार एक बच्चा डाँट सुनने के बाद आसानी से मान जाता है और थोड़ा-सा भी स्नेह पाने पर अपने प्रति किया गया अपमान भूल जाता है
उसी प्रकार की मन:स्थिति वृद्‌धावस्था में भी होती है। कहानी की प्रथम पंक्ति -"बुढ़ापा बहुधा बचपन का पुनरागमन हुआ करता है।" कहानी के सम्पूर्ण भाव को अपने में समटे हुए है। कहानी की प्रमुख पात्र बूढ़ी काकी है। काकी विधवा है। उसके सभी पुत्रों का निधन हो चुका है। उन्होंने अपनी सारी संपत्ति अपने भतीजे बुद्‌धिराम के नाम कर दी थी। बुद्‌धिराम ने संपत्ति लिखवाते समय काकी से लंबे-चौड़े वादे किए थे कि वह काकी की सभी सुख-सुविधाओं का ख्याल रखेगा लेकिन संपत्ति लिखवाने के बाद काकी पर एक रुपया भी खर्च करना बुद्‌धिराम को असहज कर देता था। कभी-कभी  बुद्‌धिराम को स्वयं के व्यवहार पर बुरा भी लगता था।
"इसी संपत्ति के कारण मैं इस समय भलमानुष बन बैठा हूँ।"
काकी की स्वाद-इंद्रिय के अलावा बाकी समस्त इंद्रियों ने काम करना बन्द कर दिया था। बाज़ार से कोई भी वस्तु खाने के लिए आती और काकी को न दी जाती तो वह बच्चों की भाँति गला फाड़-फाड़ कर रोने लगतीं।
काकी को बुद्‌धिराम के दोनों बेटे बहुत परेशान किया करते, यदि काकी उनपर चिल्लाती तो उनकी माँ रूपा के कोप का भाजन बनतीं। पूरे परिवार में बुद्‌धिराम की बेटी लाडली ही एकमात्र प्राणी थी जिसे काकी से स्नेह था।
दरअसल लाडली अपने दोनों भाइयों से बचने के लिए काकी का आश्रय लेती थी और काकी को अपने हिस्से की मिठाई आदि दिया करती थी। इस तरह उन दोनों की स्वार्थानुकूलता ने उन दोनों के मध्य सहानुभूति और स्नेह का आरोपण कर दिया था।
एक बार बुद्‌धिराम के बेटे का तिलक-उत्सव मनाया जा रहा था, पूरे गाँव को आमंत्रित किया गया। स्वादिष्ट पकवान बनाए गए। काकी पूड़ियों की कल्पना को साकार रूप देने के लिए बिना बुलाए हाथों के बल खिसकती-रेंगती कड़ाह के पास पहुँच गई। काकी को वहाँ देखकर रूपा गुस्से से उबल पड़ी। उसने काकी का अपमान किया-" ऐसे पेट में आग लगे, पेट है या भाड़?...अभी मेहमानों ने नहीं खाया, भगवान को भोग भी नहीं लगा, तब तक धैर्य न हो सका? आकर छाती पर सवार हो गई" काकी दुखी मन से वापस अपनी कोठरी में चली गई और बुलावे की प्रतीक्षा करने लगी। जब काकी को बुलावा नहीं आया तो वह सोचने लगीं - " रूपा चिढ़ गई है, क्या जाने न बुलाए। सोचती हो कि आप ही आवेंगी, वह कोई मेहमान तो नहीं जो उन्हें बुलाऊँ।" यह सोचकर काकी दोबारा रेंगती हुई मेहमानों के बीच पहुँच जाती है। इस बार अपमान करने की बारी बुद्‌धिराम की थी। बुद्‌धिराम ने समस्त मेहमानों के सम्मुख काकी का अपमान किया और घसीटते हुए उन्हें कोठरी में ले जाकर पटक दिया। "आशा रूपी वाटिका एक झोंके में नष्ट-विनष्ट हो गई।"
परिवार की ओर से अक्सर नजरअंदाज कर देने वाली काकी को पेट भर खाना भी नहीं मिलता है और  सब भर पेट खाते हैं, लेकिन काकी भूखी रह जाती है। रात को भूख जब ज्यादा लगने लगती है तो काकी लाडली के साथ कुटिया से निकलकर  बारातियों द्वारा फेंके गए जूठे पत्तल में पड़ा खाना खाने लग जाती है। रूपा की आँखें खुल जाती है और वह यह भयानक दृश्य देखती है। यह दृश्य देखने के उपरांत रूपा का हृदय भय से सिहर उठता है। रूपा स्वभाव से तीव्र किन्तु ईश्वर को मानने वाली एक धार्मिक महिला थी। उसे अपने इस कृत्य पर शर्म महसूस होती है, करुणा और भय से उसकी आँखें भर जाती है। वह सच्चे मन से ईश्वर से क्षमा माँगती है और अपने इस अधर्म का प्रायश्चित करते हुए काकी को थाल सजाकर भोजन करवाती है। " काकी उठो, भोजन कर लो, मुझसे आज बड़ी भूल हुई, उसका बुरा न मानना। परमात्मा से प्रार्थना कर लेना कि वह मेरा अपराध क्षमा कर दे।" काकी छोटे बच्चे की भाँति सारे अपमान को भूलकर खाना खाने लगती है और उनको आशीर्वाद देने लगीं।
अत: बूढ़ी काकी के चरित्र के माध्यम से हम कह सकते हैं कि मानव जीवन में बुढ़ापा बालपन का पुनरागमन होता है और  यह हमारा कर्त्तव्य है कि हम वृद्‌धावस्था में उनकी देखभाल करें तथा उनकी इच्छाओं का सम्मान करें।


घीसा



महादेवी वर्मा

प्रश्न -  घीसा का गुरु कौन था ? उसकी गुरुभक्ति का उदाहरण देते हुए स्पष्ट कीजिए कि उसने गुरुदक्षिणा में अपने गुरु को क्या दिया ?

उत्तर -"घीसा" महादेवी द्‌वारा लिखी गई हिन्दी की बहु-प्रसिद्‌ध रेखाचित्र है । घीसा के माध्यम से लेखिका ने उन सभी अबोध और गरीब बच्चों का प्रतिनिधित्व किया है जो समाज और सरकार की अवहेलना का शिकार होकर काल की गोद में समा जाते हैं। महादेवी वर्मा हिन्दी साहित्य के छायावादी काल की प्रमुख कवयित्री है। उन्हें आधुनिक युग का मीरा भी कहा जाता है। महादेवी वर्मा ने संस्कृत से एम०ए० किया और तत्पश्चात प्रयाग-महिला विद्‌यापीठ की प्रधानाचार्या नियुक्त की गईं। महादेवी वर्मा ने स्वतंत्रता के पहले का भारत भी देखा और उसके बाद का भी। वे उन कवियों में से एक हैं जिन्होंने व्यापक समाज में काम करते हुए भारत के भीतर विद्यमान हाहाकार, रुदन को देखा, परखा और करुण होकर अन्धकार को दूर करने वाली दृष्टि देने की कोशिश की। उन्होंने न केवल साहित्य लिखा बल्कि पीड़ित बच्चों और महिलाओं की सेवा भी की।
महादेवी वर्मा की भाषा संस्कृतनिष्ठ सहज तथा चित्रात्मक है जिसमें हिन्दी के तद्‌भव व देशज शब्दों का भी प्रयोग किया गया है। इनकी कुछ प्रसिद्‌ध रचनाओं के नाम हैं - गिल्लू, सोना, अतीत के चलचित्र, स्मृति की रेखाएँ, हिमालय आदि।

घीसा महादेवी द्‌वारा पढ़ाए जाने वाले उन उपेक्षित और गरीब बच्चों में से एक था जो सबसे होशियार और प्रतिभावान था। महादेवी वर्मा ही घीसा की गुरु थीं। लेखिका को झूँसी के खंडहरों और उसके आस-पास के गाँव से अत्यंत प्रेम था। लेखिका ने वहाँ के बच्चों को पढ़ाने का कार्य आरम्भ किया। उन बालकों में एक घीसा भी था। घीसा के पिता की मृत्यु हो चुकी थी और उसकी माँ गाँव वालो के घरों में काम किया करती थी। घीसा अत्यंत कमजोर शरीर, मलिन मुख, पीली आँखें और पतली बाँहों वाला एक साधारण-सा बालक था जिसे गाँव के सभी बच्चे उपेक्षित दृष्टि से देखते थे।
"बस ऐसा ही था वह घीसा। न नाम में व्यक्तित्व की गुंजाइश, न शरीर में।" 
लेखिका घीसा की प्रतिभा से बहुत प्रभावित होती थी। घीसा व्यवहारकुशल और व्यवस्थित बालक था। वह अपने उत्तरदायित्व को बड़ी गम्भीरता से निभाता था। पाठशाला की लिपाई-पुताई, झाड़-बुहार करता, पेड़ के कोटर में रखी शीतलपाटी को बिछाता, स्याही की दवात और कलम को साफ़ करके यथास्थान रख देता, पाठशाला की सफाई पूरे नियम और ध्यान से करता। जब लेखिका आने वाली होती तो सबको भाग-भागकर उनके आने की सूचना देता और गुरु के स्वागत के लिए स्वयं सबसे आगे खड़े रहता। 
घीसा लेखिका का आज्ञापालक शिष्य था। लेखिका उसकी अबोधता, भोलेपन, निस्वार्थ-भावना और गुरुभक्ति से बहुत ज्यादा प्रभावित होती है। लेखिका को घीसा जैसा दूसरा शिष्य ढूँढ़ने पर भी नहीं मिला। 
घीसा की गुरुभक्ति का पता लेखिका को तब लगता है जब वह बिना साधनों की व्यवस्था किए बच्चों को सफ़ाई का उपदेश दे डालती है और अगली कक्षा में सब बच्चों को साफ-सुथरे कपड़े पहनकर आने की हिदायत दे देती है। घीसा की माँ दूसरों के घरों में काम करके जैसे-तैसे अपना और घीसा का पेट पालती थी। घीसा के पास "एक ही पुराना कुर्ता था जिसकी एक आस्तीन आधी थी और एक अंगोछे जैसा फटा टुकड़ा।" घीसा नहा कर गीला अंगोछा और कुर्ता पहनकर ही लेखिका के सम्मुख खड़ा हो जाता है ताकि गुरु की आज्ञा का पालन हो सके। उस वक्त लेखिका ने समझा -
"आँखें ही नहीं, मेरा रोम-रोम गीला हो गया। उस समय समझ में आया कि द्रोणाचार्या ने अपने भील शिष्य से अँगूठा कैसे कटवा लिया था।"
एक बार शहर में साम्प्रदायिक वैमनस्य धीरे-धीरे बढ़ रहा था और लेखिका को यथाशीघ्र शहर पहुँचना था ताकि वहाँ के विद्‌यार्थियों को सकुशल घर भेजा जा सके। उस दौरान घीसा बुखार में तड़प रहा था और जब उसने सुना कि लेखिका इस गंभीर माहौल में भी शहर जा रही है तब वह बीमारी की हालत में भी लेखिका के पास पहुँचकर उन्हें शहर जाने से रोकने का प्रयास करता है। घीसा के मन में अपने गुरु के प्रति अपार श्रद्‌धा की भावना थी।
"वह गुरु साहब के गोड़ धरकर यहीं पड़ा रहेगा, पर पार किसी तरह भी न जाने देगा।"
घीसा के सरल मन में कितनी ममता थी। जब उसे पता चलता है कि लेखिका आपरेशन के लिए शहर जा रही हैं तो उसने गुरु-दक्षिणा देने की सोची। घीसा ने अपना कुर्ता खेतवाले को देकर गुरु-दक्षिणा के लिए तरबूज प्राप्त किया। उसने कहा कि यदि "गुरु साहब न लें तो घीसा रात भर रोएगा; छुट्‌टी भर रोएगा।" गुरु के प्रति इस भक्ति को देखकर स्वयं लेखिका ने कहा -"उस तट पर किसी गुरु को किसी शिष्य से कभी ऐसी दक्षिणा मिली होगी, ऐसा मुझे विश्वास नहीं। परन्तु उस दक्षिणा के आगे संसार के अब तक के सारे आदान-प्रदान फीके हो गए।"
महावेदी वर्मा ने  घीसा के माध्यम से एक उपेक्षित बच्चे के गुणों को प्रकट किया है और साथ ही साथ समाज और सरकार का ध्यान आकृष्ट किया है कि ऐसे उपेक्षित बच्चों को विकास का समुचित अवसर जरूर मिलना चाहिए । यदि घीसा जैसे प्रतिभावान बच्चे अकाल-मृत्यु का शिकार बनते हैं तो यह किसी भी समाज, देश और मानव-सभ्यता के लिए शर्म की बात है।

भाग्य-रेखा


 












ष्म साहनी

प्रश्न - भाग्य-रेखा कहानी सामाजिक और राजनीतिक विसंगतियों पर तीखा व्यंग्य करती है। स्पष्ट कीजिए।

उत्तर - ष्म साहनी द्‌वारा रचित प्रसिदध कहान"भाग्य-रेखा" वर्तमान भारत की सामाजिक और राजनैतिक विसंगतियों पर तखा व्यंग्य करती है। आधुनिक हिन्दी साहित्य में भीष्म साहनी का स्थान महत्त्वपूर्ण है। साहनी जी ने गवर्नमेंट कॉलेज लाहौर से अँग्रेजी में एम०ए० की परीक्षा उत्तीर्ण की तथा अध्यापन का कार्य करने लगे। विभाजन के बाद ये दिल्ली चले आए। सन्‌ 1957 से 1963 तक इन्होंने मास्को (रूस) में अनुवादक के रूप में कार्य किया और टॉलस्टाय, आस्त्रॉस्की आदि की रचनाओं का अनुवाद किया।
भीष्म साहनी की कहानियों में सामाजिक विसंगतियों का यथार्थपरक चित्रण किया गया है। भारत विभाजन पर आधारित "तमस" उपन्यास के लिए इन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया है।
इन्होंने सामान्य बोलचाल की भाषा में उर्दू, अँग्रेजी और संस्कृत के तत्सम शब्दों का प्रयोग किया है। उनकी प्रमुख रचनाओं में  भाग्य रेखा, पटरियाँ, भटकती राख, अमृतसर आ गया, शोभा-यात्रा, चीफ़ की दावत, खून का रिश्ता, प्रोफेसर आदि हैं
"भाग्य-रेखा" कहानी में लेखक ने यह स्पष्ट किया है कि अधिकांश मिल मालिकों और मज़दूरों के बीच का संबंध सामान्य नहीं है। उनके बीच विश्वास कखाई चौी होती जा रही है जिसके फलस्वरूप अन्याय, शोषण और अत्याचार बढ़ता जा रहा है। आज का समाज आर्थिक दृष्टिकोण से मुख्यत: दो वर्गों में बटा हुआ है- साधन-संपन्न वर्ग और साधनहीन वर्ग।
कहानी में यजमान मज़दूर वर्ग का प्रतिनिधित्व करता है जिसके दाएँ हाथ की तीन उँगलियाँ मीन से काम करते वक्त कट ग और मालिक ने उसे काम से निकाल दिया क्योंकि अब वह काम करने में उतना समर्थ नहीं रहा। वह काम कोज में जहाी जाता है  वहाँ उससे तीन उँगलियाँ माँगी जाती है। वह हँसकर कहता है - " अब मैं नई उँगलियाँ कहाँ से लाँ? जहाँ जाओ मालिक पूरी दसँगलियाँ माँगता है।" लेखक ने  राजनैतिक व्यवस्था पर व्यंग्य किया है कि मज़दूर कारखानों में अपनी जान जोखिम में डालकर मीनों पर काम करते हैं लेकिन दुर्घटना हो जाने पर उन्हें काम से निकालकर बेरोज़गारों की सूचियों में डाल दिया जाता है।
कहानी में दमे का रोगखाँसते हुए घास पर ूकता है। लेखक से यह सहा नहीं जाता है। वह कहता है - " सुना है विलायत में सरकार ने जगह-जगह पीकदान लगा रखे हैं, ताकि लोगों को घास पर न ूकना पड़े।" इस पर मज़दूर  देश की स्वास्थ्य सेवाओं पर व्यंग्य करते हुए कहता है -"तो साहब, वहाँ के लोगों को ऐसखाँसी न आती होगी।"
कहानी में आगे दमे का रोगी बाग में बैठे एक ज्योतिी ( बंगाल से आया शरणार् ) को अपना हाथ दिखाते हुए अपनी किस्मत के बारे में जानना चाहा तो ज्योतिी ने कहा - " तेरा माथा बहुत साफ है, धन जरूर मिलेगा।" ज़दूर ने उस ज्योतिष को एक थप्पड़ दे मारा। ज्योतिष इस असामान्य व्यवहार के लिए तैयार नहीं था। वह अपना सामान समेट कर जाने लगता है। तब मज़दूर कहता है -" तीन साल से भाई के टुकड़ों पर पड़ा हँ। कहता है, धन मिलेगा।" लेखक ने ज्योतिष-विज्ञान पर करारा व्यंग्य किया है। लेखक कहना चाहते हैं कि जो विज्ञान संभावनाओं पर टिका हुआ हो, उस विज्ञान कहा जाना सर्वथा अनुचित होगा। यह सामाजिक विडंबना है कि हम आज थाकथित ज्योतिषियों के चक्कर में पड़कर कर्म की जगह भाग्य पर यकीन करना चाहते हैं ।
बाग में लोगों की भीड़ बढ़ने लगती है। नीले कुर्ते और पाजामे पहने मज़दूरों की तादाद बढ़ने लगती है। उनके साथ लट्‌ठधारी पुलिस की लारियाँ भी आने लगती है। ज्योतिषी ने जानना चाहा कि भीड़ क्यों बढ़ रही है? यजमान ने कहा -" तुम नहीं जानते? आज मई दिवस है, मजदूरों का दिन है।" पूरी दुनिया में पहली मई को मज़दूर दिवस के रूप में मनाया जाता है। आज ही के दिन अमेरिका के शिकागो शहर में 1886 में मेकॉर्मिक हार्वेस्टिंग मशीन कंपनी मे मज़दूरों ने आम हड़ताल कर दिया था और कंपनी के मालिक ने पुलिस की सहायता से इस हड़ताल को खत्म करने के लिए मज़दूरों पर गोली चलवाई, जिसमें कई मजदूर मारे गए। तब से ही मज़दूरों ने संगठित होकर मालिकों को अपनी अपार शक्ति दिखानी शुरू की।

बाग में शहर की ओर से एक विशाल जुलूस आगे बढ़ने लगता है। नारे आसमान तक गूँजने लगते हैं और लोगों की संख्या हजारों तक जा पहुँची। पुलिस वाले भी भीड़ के साथ-साथ चलने लगे। धीरे-धीरे जुलूस ओझल हो गया। मालूम चला कि - "जुलूस अजमेरी गेट, दिल्ली दरवाजा होता हुआ लाल किले तक जाएगा, वहाँ जलसा होगा।" लेखक भारत में एक नई राजनैतिक व्यवस्था का स्वप्न देखते हैं कि शायद एक दिन ऐसा भी आएगा जब देश पर मज़दूरों-किसानों की सरकार होगी और वे हर तरह के अन्याय, शोषण और उत्पीड़न से मुक्त हो पाएँगे।

दमे का मज़दूर उस जुलूस का हिस्सा नहीं था पर जुलूस को देखकर वह संगठन की शक्ति को समझ गया। वह समझ गया कि मज़दूर संख्या में अधिक होते हुए भी मालिकों के शोषण का शिकार क्यों बनते हैं। अगर मज़दूर अपने प्रति किए गए अन्याय के प्रति सामूहिक रूप से आवाज उठाएँ, क्रांति का आह्‌वान करें तो मालिकों के शोषण से मुक्ति संभव है।

दमे के रोगी ने नई आशा के साथ अपनी उँगलियाँ कटी हथेली ज्योतिषी के सामने खोल दी और कहा -" फिर देख हथेली, तू कैसे कहता है कि भाग्य-रेखा कमजोर है?"

अत: हम कह सकते हैं कि उस दमे के रोगी मज़दूर ने संगठन और क्रांति में विश्वास किया क्योंकि क्रांति ही उसे शोषण और अन्याय से मुक्ति दिला सकती है और एक ऐसे समाजिक-राजनैतिक व्यवस्था की स्थापना कर सकती जहाँ आर्थिक आधार पर सबको समानता का अधिकार प्राप्त हो।

धरती अब भी घूम रही है





 


 
प्रश्न – “धरती अब भी घूम रही है” कहानी का उद्‌देश्य स्पष्ट कीजिए और बताइए कि सामाजिक अव्यवस्था बच्चों के मन पर किस प्रकार व कैसा प्रभाव डालती है?
 

उत्तर – “धरती अब भी घूम रही है” विष्णु प्रभाकर की सामाजिक विसंगतियों पर लिखी गई एक प्रसिद्‌ध रचना है। विष्णु प्रभाकर पर महात्मा गाँधी के दर्शन और सिद्धांतों का गहरा असर पड़ा। इसके चलते ही उनका रुझान कांग्रेस की तरफ हुआ और स्वतंत्रता संग्राम के महासमर में उन्होंने अपनी लेखनी का भी एक उद्‌देश्य बना लिया, जो आजादी के लिए सतत संघर्षरत रही। अपने दौर के लेखकों में वे प्रेमचंद, यशपाल, जैनेंद्र और अज्ञेय जैसे लेखकों के सहयात्री रहे, लेकिन रचना के क्षेत्र में उनकी एक अलग पहचान रही। विष्णु जी के साहित्य पर गाँधीवादी विचारों का व्यापक प्रभाव पड़ा है। उन्होंने अपनी रचनाओं में जहाँ एक तरफ समाज के यथार्थ स्वरूप का बेबाक चित्रण किया है, वहीं दूसरी तरफ सुधारवादी दृष्टिकोण का भी परिचय दिया है।
“धरती अब भी घूम रही है” कहानी के माध्यम से लेखक ने यह दिखाना चाहा है कि समाज में व्याप्त अव्यवस्था, भ्रष्टाचार, अनैतिकता आदि का बालमन पर कितना गहरा और नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। लातिनी अमेरिकी पत्रकार और लेखक एदुआर्दो गाले आनो ने एक जगह लिखा है कि किसी समाज की वास्तविक जानकारी इस बात से भी होती है कि वहाँ किस तरह की अनैतिक क्रियाएँ होती हैं। इस कथन के सिलसिले में इस बात पर विचार किया जाना चाहिए कि जिस समाज में दस-बारह साल के बच्चों के लिए ऐसा माहौल बना दिया जाए कि वे अपराध की दुनिया में प्रवेश कर जाएँ तो वह समाज कैसा होगा?
धरती अब भी घूम रही है कहानी इस तथ्य की ओर पाठकों का ध्यान आकर्षित करती है कि सामाजिक और राजनैतिक जीवन में व्याप्त भ्रष्टाचार, क्रूर व्यवहार, झूठ, कपट, रिश्वतखोरी आदि का सामना, जब आठ-दस साल के बच्चे करते हैं तब उनके मासूम और भोले मस्तिष्क पर इसके भयावह परिणाम देखे जा सकते हैं।
कमल (आठ वर्ष) व नीना (दस वर्ष) की माँ की मृत्यु हो चुकी है। पिता उनकी अच्छी परवरिश करने के लिए दिन-रात मेहनत करता है लेकिन महँगाई से तंग आकर बीस रुपए की रिश्वत लेता है और पकड़ा जाता है और उसे नौ महीने की सज़ा हो जाती है। कमल और नीना अपने मौसा-मौसी के पास रहते हैं जो उनके साथ बेहद बुरा व्यवहार करते हैं। मौसा-मौसी अपने बच्चों से अत्यंत प्रेम करते हैं लेकिन कमल और नीना के साथ भेदभाव-पूर्ण व्यवहार करते हैं जिसका कमल और नीना पर बुरा प्रभाव पड़ता है। मौसी के इस व्यवहार से दुखी होकर कमल नीना से कहता है – “आज मुझे मौसीजी ने मारा था। जीजी, गिलास तोड़ा तो प्रदीप ने और मारा हमें...जीजी, यहाँ से चलो।” लेखक हमें बताना चाहते हैं कि छोटे बच्चों में अपराध की मनोवृत्ति इसी सामाजिक भेदभाव-पूर्ण व्यवहार के कारण उपजती है।
मौसा-मौसी के बातचीत से कमल और नीना को पता चलता है कि उनके पिता ने मात्र बीस रुपए की रिश्वत ली थी और मौसा कहते हैं – “जब रिश्वत ली थी तो दी क्यों नहीं? अरे तीन सौ देने पड़ते तो पाँच सौ बटोरने का मार्ग भी तो खुलता...” मौसा कहता है –
“ मैंने कहा कि तीन सौ, चार सौ रुपए का प्रबन्ध कर दें, तुम्हें छुड़ाने का जिम्मा मेरा, तो सत्यवादी बन गए – मैं रिश्वत नहीं दूँगा। नहीं दूँगा तो ली क्यों थी? अरे लेते हो तो दो भी।”
मौसा का उपर्युक्त कथन सामाजिक जीवन में फैले हुए भ्रष्टाचार और रिश्वतखोरी की ओर संकेत करता है। मौसा की बात सुनकर भोले-भाले बच्चे यह सोचने लग जाते हैं कि रिश्वत लेने पर दी भी जाती है। वे कहते हैं – “पिताजी, तुमने रिश्वत ली थी, तो देते क्यों नहीं...क्यों...।” बच्चों को अपने मौसा से पता चलता है कि “रिश्वत और तरह की भी होती है। एक प्रोफेसर ने एक लड़की को एम०ए० में अव्वल कर दिया था क्योंकि वह खूबसूरत थी...।”
कमल और नीना इन बातों का मतलब नहीं समझ पाते कि आखिर खूबसूरत लड़की का वे क्या करते हैं? वे बड़ी गम्भीरता से सुनी-सुनाई बातों को याद कर रहे थें। नीना-कमल पिता को जेल से छुड़वाने के लिए प्रयत्नशील हो जाते हैं। वे दोनों सुबह-सुबह तैयार होकर जज के भवन पर पहुँच जाते हैं। कमल जज से कहता है –
 “ हमारे पास पचास रुपए हैं। आपने तीन हज़ार लेकर एक डाकू को छोड़ा है।...रुपए थोड़े हों तो...” नीना भी बिना सोचे-समझे रटे-रटाए पार्ट की तरह बोली – "मैं एक-दो दिन आपके पास रह सकती हूँ।” कमल कहता है – “ नेरी जीजी खूबसूरत है और आप खूबसूरत लड़कियों को लेकर काम कर देते हैं।”
निष्कर्ष में हम कह सकते हैं कि बच्चों का मन और मस्तिष्क मासूम, सहज और भोला होता है, उन्हें सामाजिक और राजनैतिक जीवन में फैले हुए भ्रष्टाचार का कोई आभास नहीं होता है। सामाजिक निर्ममता, कठोरता, अनैतिकता व क्रूर आचरण बालमन को झकझोर कर रख देता है। वे बातों की गहराई को समझने में असमर्थ होते हैं और बातों को स्थूलता से पकड़ लेते हैं और उन्हीं का अनुसरण करते हैं।
 
 
 

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