ओ नभ में मडँराते बादल
रामेश्वर शुक्ल ’अंचल’
प्रश्न -
’ओ नभ मडँराते बादल’ कविता का प्रतिपाद्य लिखते हुए बताइए कि वर्षा के अभाव में मानव-जीवन को तथा प्रकृति को किन-किन कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है ?
उत्तर - रामेश्वर शुक्ल ’अंचल’ जी हिन्दी के विख्यात साहित्यकार हैं। इन्होंने कविता, उपन्यास, कहानी, आलोचनात्मक निबंध संग्रह आदि रचना की हैं। इनकी रचनाओं में छायावाद और बाद में प्रगतिवाद का स्पष्ट प्रभाव देखा जा सकता है। इन्होंने अपनी रचनाओं के माध्यम से कल्पना के स्थान पर वास्तविक जीवन की सच्चाइयों को पाठकों के सम्मुख अभिव्यक्त किया। इन्होंने शोषित वर्ग की त्रासदी एवं कष्टमय जीवन को अपनी रचनाओं के द्वारा मुखर किया। अंचल जी की भाषा सहज, भावपूर्ण और हृदयग्राही है। इनकी प्रमुख रचनाएँ हैं - मधूलिका, अपराजिता, किरण-बेला, लाल चूनर, विराम-चिह्न आदि।
प्रस्तुत कविता में कवि बादलों से अनुरोध कर रहे हैं कि वे बिना बरसे न जाएँ। कवि आकाश में मडँराते बदलों से आग्रह कर रहे हैं कि वे धरती पर बरस जाएँ जिससे लोगों के होठों की मुस्कान वापस लौट आए। कवि बादलों से कहते हैं कि तू पूर्व दिशा से आने वाली पुरवैया को ठंडक से भर दे जिससे चारों दिशा में बारिश के आने की खुशी फैल जाए। क्षितिज के पास काले बादलों की काजल रेखा खींच दे ताकि लोगों के दिलों में शीतलता का आभास हो जाए, जैसे काजल आँखों को ठंडक प्रदान करता है। कवि के शब्दों में -
खींच क्षितिज पर शीतलता की कज्जल धूम शिखा।
बारिश न होने के कारण मानव-जाति और प्रकृति की अत्यंत दयनीय दशा हो गई है। बारिश न होने के कारण धरती प्यासी हो गई है। वह किसी तरह अपने प्यास को रोके वर्ष की पहली वर्षा का इंतज़ार कर रही है। फूल तपती गर्मी के कारण झुलस चुके हैं। हरियाली का नामो-निशान मिट चुका है। वन-पर्वत सभी गर्मी की आग में जल रहे हैं। कवि को ऐसा लगता है कि जैसे पर्वत बेचैनी से जल की बूँदों के लिए आकाश की ओर देख रहे हैं और वे बादलों से प्राण-रक्षा की गुहार लगा रहे हैं। नदी के किनारे पानी के लिए मचल रहे हैं, उनके किनारे सूख कर वीरान हो गए हैं। कवि कहते हैं -
कब से आतप दग्ध वनों के प्राण पुकार रहे।
मन जलता है जैसे तृष्णा का क्षण जलता है।
सूखे मूल कगारों का वीरान मचलता है।
वर्षा ऋतु में आकाश बादलों से आच्छादित हो चुका है। सूखे पत्तों की जो मर्मर की आवाज़ है वह भी गीतों की ध्वनि में बदल रही है और वर्षा का आह्वान कर रही है। कवि कहते हैं कि गर्मी का प्रकोप इतना बढ़ गया है कि सायंकालीन धूप भी बेचैन होकर जल की लालसा कर रहा है। आकाश में उड़ते हुए पक्षी भी अपने घोंसलों में जाने के लिए बेचैन हैं। उनकी परछाइयाँ भी नहीं दिखाई दे रही है। कवि के शब्दों में -
थकी अनमनी धूप माँगती है जलमय बाँहें।
डूब चुकी तम में नीड़ाकुल विहगों की छाँहें।
कवि कहते हैं कि तपती गर्मी का असर न सिर्फ़ प्रकृति जगत पर बल्कि मानव-जगत पर भी प्रतिकुल पड़ रहा है। बड़ी संख्या में मनुष्य बादलों की प्रतीक्षा खेत-खलिहानों, मुंडेरों और घर-घर में कर रहे हैं। वर्षा के अभाव में उन्हें तृप्ति नहीं मिल रही है। जल की बूँदों के लिए मानव जीवन तड़प रहा है। युवा मन भी मुरझा रहा है।
खेतों-खलिहानों, मुंडेरों पर छत पर, घर-घर।
हेर रहे अगणित हम तुमको जल वाले जलधर।
अत: हम कह सकते हैं कि कवि उपर्युक्त अनेक कारणों से बादलों को बरसने का आग्रह कर रहे हैं जिससे प्रकृति और मनुष्य को तपती गर्मी से राहत मिल सके और उन्हें जीवन की खुशियाँ प्राप्त हों।
तूफ़ानों की ओर
शिवमंगल सिंह ’सुमन’
प्रश्न - कवि किस तूफ़ान की बात कर रहा रहे हैं और नाविक से तूफ़ानों की ओर पतवार ले जाने लिए क्यों कह रहे हैं ?
उत्तर - शिवमंगल सिंह ’सुमन’ हिन्दी के प्रगतिवादी कवि हैं। इन्होंने अपनी रचनाओं के द्वारा शोषित मानव की पीड़ा और निराशा को दर्शाया है और संघर्ष की आवाज़ को बुलंद किया है। सुमन जी ने अपनी रचनाओं में सामाजिक विषमताओं को चित्रित किया है। इनकी काव्य-भाषा में आए सहज शब्दों ने लोक-जीवन को प्रभावित किया और इन्हों हिन्दी का सशक्त रचनाकार-गीतकार बना दिया।
इनकी प्रमुख रचनाएँ हैं - हिल्लोल, जीवन के गान, प्रलय सृजन, मिट्टी की बारात, विश्वास बढ़ता ही गया आदि।
तूफ़ानों की ओर में कवि मानव को उसकी क्षमता और सामार्थ्य स्मरण दिलाते हुए उसे तूफ़ान रूपी बाधाओं से भयभीत होने की अपेक्षा उनसे संघर्ष करने की प्रेरणा देता है। कवि नाविक रूपी मनुष्य का आह्वान करते हुए कहता है कि वह अपने हाथों में पतवार रूपी संघर्ष करने की क्षमता को पूरी मज़बूती से थामे और कठिनाई रूपी समुद्र में बेखौफ़ उतर पड़े।
कवि ने मानव को संघर्षों से लड़ने की प्रेरणा देते हुए कहते हैं कि हे नाविक! तू आज अपनी पतवार तूफ़ानों की ओर मोड़ दे अर्थात तेरे सामने जो विपत्तियाँ खड़ी हैं तू उनसे मत घबरा बल्कि उनका हिम्मत के साथ सामना करके मानव जाति के सामने साहस की परिचय दे। आज समुद्र ने रत्न नहीं बल्कि विष उगला है, लहरें भी मचल रही हैं लेकिन समुद्र के समान मानव हृदय में भी तूफ़ान उठ रहा है जो समुद्र रूपी बाधाओं का सामना कर इस ज्वाररूपी मुश्किल का हिम्मत से मुकाबला करने के लिए तत्पर है। कवि के शब्दों में -
आज हृदय में और सिंधु में,
साथ उठा है ज्वार।
तूफ़ानों की ओर घुमा दो नाविक निज पतवार।
कवि मानव को सम्बोधित करते हुए कहते हैं कि समुद्र में उठने वाली लहरें गरज़ रही हैं तुम भी लहरों के स्वर में स्वर मिलाकर उसे चुनौती दो। बाधा रूपी आँधी में भी साहस से काम लो। मानव जीवन में आने वाली बाधा से घबराना नहीं चाहिए बल्कि इनसे जीवन में सीख लेनी चाहिए।
कवि कहते हैं -
लहरों के स्वर में कुछ बोलो,
इस अंधड़ में साहस तोलो,
कभी-कभी मिलता जीवन में,
तूफ़ानों का प्यार।
कवि कहते हैं कि समुद्र अनन्त है, असीम है, इसे अपनी सीमा का ज्ञान है। दूसरी ओर मानव भी अपनी हद अर्थात ताकत को जानता है, वह समुद्र को भी अच्छी तरह पहचानता है कि वह कितना गहरा और असीम है, उसे पार नहीं पाया जा सकता है। लेकिन मिट्टी का पुतला मानव तूफ़ानों से कभी हार नहीं मानता अर्थात वह मानव ने हमेशा मुसीबतों का डटकर सामना किया है। अत: हे नाविक! तू अपनी पतवार को इन तूफ़ानों की ओर मोड़ दे और इनका सामना कर।
कवि कहते हैं कि समुद्र सामर्थ्यवान है लेकिन माँझी भी अपनी शक्ति का प्रदर्शन कर तूफ़ान के समय भी समुद्र में अपनी नाव लेकर उतर जाता है। वह थककर बैठता नहीं, हार नहीं मानता। माँझी अपनी साँस के रहने तक अर्थात अंतिम सा~म्स तक पतवार चलाता रहता है, उसका हाथ नहीं रुकता। अपनी इसी हिम्मत के बल पर ही उसने पहले भी सातों समुद्र पार किए हैं। कवि नाविक रूपी मनुष्य से तूफ़ान रूपी बाधा से जूझने के लिए कह रहे हैं -
जब तक साँसों में स्पन्दन है,
उसका हाथ नहीं रुकता है।
उसके ही बल पर कर डाले सातों सागर पार।
तूफ़ानों की ओर घुमा दो नाविक निज पतवार।
इस प्रकार कवि मनुष्य को उसकी क्षमता और साहस की याद दिलाते हुए यह कहते हैं कि जीवन में बाधाएँ तो आती रहेंगी लेकिन मनुष्य को कभी-भी उन बाधाओं से हार कर बैठ नहीं जाना चाहिए बल्कि अंतिम साँस तक संघर्ष करते रहना चाहिए। मानव-सभ्यता के विकास के लिए यह संघर्ष अनिवार्य है।
इनसान बनकर आ रहा सवेरा है
गिरिजा कुमार माथुर
प्रश्न -’इनसान बनकर आ रहा सवेरा है’ कविता का सार लिखते हुए यह बताइए कि कवि ने प्रस्तुत कविता के माध्यम से मानव जाति को क्या संदेश दिया है ?
उत्तर - गिरिजा कुमार माथुर हिन्दी के आधुनिक काल के प्रमुख कवियों में से एक हैं। स्थानीय कॉलेज से इण्टरमीडिएट करने के बाद १९३६ में स्नातक उपाधि के लिए ग्वालियर चले गये। १९३८ में उन्होंने बी.ए. किया, १९४१ में उन्होंने लखनऊ विश्वविद्यालय में एम.ए. किया तथा वकालत की परीक्षा भी पास की।
वे विद्रोही काव्य परम्परा के रचनाकार माखनलाल चतुर्वेदी, बालकृष्ण शर्मा नवीन आदि की रचनाओं से अत्यधिक प्रभावित हुए और १९४१ में प्रकाशित अपने प्रथम काव्य संग्रह 'मंजीर' की भूमिका उन्होंने निराला से लिखवायी। उनकी रचना का प्रारम्भ द्वितीय विश्वयुद्ध की घटनाओं से उत्पन्न प्रतिक्रियाओं से युक्त है तथा भारत में चल रहे राष्ट्रीय स्वतंत्रता आन्दोलन से प्रभावित है। सन १९४३ में अज्ञेय
द्वारा सम्पादित एवं प्रकाशित 'तारसप्तक' के सात कवियों में से एक कवि
गिरिजाकुमार भी हैं। यहाँ उनकी रचनाओं में प्रयोगशीलता देखी जा सकती है।उनके
द्वारा रचित मंदार, मंजीर, नाश और निर्माण, धूप के धान, पृथ्वीकल्प,
शिलापंख चमकीले आदि काव्य-संग्रह प्रकाशित हुए हैं। उनका ही लिखा एक भावान्तर
गीत "हम होंगे कामयाब" समूह गान के रूप में अत्यंत लोकप्रिय है।१९९१ में आपको कविता-संग्रह "मै वक्त के सामने" के लिए हिंदी का साहित्य अकादमी पुरस्कार तथा १९९३ में के के बिरला फ़ाउंडेशन द्वारा दिया जाने वाला प्रतिष्ठित व्यास सम्मान प्रदान किया गया। उन्हें शलाका सम्मान से भी सम्मानित किया जा चुका है।
गिरिजा कुमार माथुर ने सहज खड़ी बोली का साहित्यिक प्रयोग किया।
’इनसान बनकर आ रहा सवेरा है’ हिन्दी की प्रमुख आशावादी कविता है जिसमें इनसान के सामर्थ्य को रेखांकित किया गया है। कवि का मानना है कि समाज में व्याप्त निराशा के अंधकार को आशा रूपी नए सवेरे से दूर करना होगा। आज समाज की स्थिति ऐसी हो गई है कि लोग अपने निकट संबंधियों को पहचानने से इनकार कर देते हैं। लोगों पर स्वार्थ इतना भावी होता जा रहा है कि रिश्तों की अहमियत खत्म होती जा रही है। हमने जिन सपनों को लेकर नया समाज बनाने की ठानी थी, अब वे सपन्व धूमिल होते जा रहे हैं -
हम सोच रहे यह कैसा नया समाज बना,
जब अपने ही घर में हुए हम बिराने हैं।
कवि समाज की विषमता की ओर हमारा ध्यान आकर्षित करते हुए कहते हैं कि आधी रात का समय है और आधा संसार अंधेरे में सोया हुआ है लेकिन कुछ लोग ऐसे भी हैं जो सुख-सुविधा की ज़िन्दगी व्यतीत कर रहे हैं। उनकी रंग-बिरंगी दुनिया में दुख-कष्ट-पीड़ा के लिए कोई स्थान नहीं है। यह सामाजिक विषमता उन तमात लोगों के बीच घोर पीड़ा का कारण बनती है जो इस उम्मीद में दीपक की भाँति जल रहे हैं कि आशा रूपी नया सवेरा जरूर आएगा।
पर दुख का इनसानी दीपक जलकर कहता,
अब ज़्यादा देर नहीं है नए सवेरे में।
कवि कहते हैं कि भले ही हम मिट्टी में मिले सितारों की तरह हैं । हम ऊपर से राख की ढेरी के समान शांत दिखाई देते हैं लेकिन हमारे भीतर आग की चिंगारी सुलगती रहती है। बस उस चिंगारी को भड़कने की जरूरत है जिससे धरती पर प्रलय आ जाएगी। यदि सामाजिक विषमता को खत्म नहीं किया गया तो इनसानी विद्रोह की शुरुआत होगी जिससे धरती पर विध्वंस का तांडव होगा। ऐसा पह्ले भी कई बार हुआ है। कवि कहते हैं -
हम जीवन की मिट्टी में मिले सितारे हैं,
हम राख नहीं हैं राख ढके अँगारे हैं,
जो अग्नि छिपा रखी है हमने यत्नों से,
हर बार धरा पर उसने प्रलय उतारे हैं।
कवि कहते हैं दीपक एक है लेकिन वह सूर्य पर भी भारी है क्योंकि उसमें इतनी शक्ति है कि वह स्वयं को तिल-तिलकर जलाता है और सबको रोशनी देता है। उसी प्रकार इस धरती पर हर इनसान बाती के समान है जो पूरी धरती रूपी दीपक को जलाए रख सकता है और धरती को अँधकार से मुक्त कर रोशनी से नहला सकता है।कवि कहते हैं कि यह प्रत्येक इनसान का कर्त्तव्य है कि वह यह निश्चित करे कि इस धरा पर कोई दुखी न रह जाए। हमें इस बात की कोशिश करनी चाहिए कि धरती पर इनसानियत की लौ जलती रहे क्योंकि एक चिंगारी पूरे वन प्रदेश को जला सकती है।
कवि कहते हैं कि इनसान को जीवन के हर संकट का सामना करना चाहिए और कभी हार नहीं मानना चाहिए। यह तय है कि उसके चुने हुए रास्ते पर हर तरह के संकट होंगे। रास्ते में तूफ़ान भी मिलेंगे, पैर भी घायल होंगे, काली अँधियारी रात होगी लेकिन अंत में मंज़िल झिलमिलाती हुए उसकी सफलता का स्वागत करेगी। कवि को पूर्ण विश्वास है कि घोर निराशा के बादल छँट जाएँगे क्योंकि इनसान सफलता प्राप्त करता हुआ अपनी मंज़िल की ओर बढ़ा चला आ रहा है।
प्रस्तुत कविता के माध्यम से कवि यह भी कहना चाहते हैं कि दीपक खुद को जलाकर दूसरों को रोशनी प्रदान करता है लेकिन उसके नीचे घोर अँधेरा पसरा रहता है। जिनके पास सोने की चमक है, उन्हीं के पास अनीति ने डेरा डाल लिया है। अत: हे मनुष्य! तू इनसान की इन काली करतूतों वाली काली अँधेरी रात को मिटा दे, नहीं तो सवेरा इनसान बनकर तुझे जगाने आ रहा है।
साखी
कबीरदास
प्रश्न - कबीर के दोहों में गुरु का महत्त्व, साधु के लक्षण और अन्य व्यावहारिक विषयों पर विचार व्यक्त हुए हैं। उदाहर सहित स्पष्ट कीजिए।
उत्तर - कबीर सन्त कवि और समाज सुधारक थे। ये सिकन्दर लोदी के समकालीन थे। कबीर का अर्थ अरबी भाषा में महान होता है। कबीरदास भारत के भक्ति काव्य परंपरा के महानतम कवियों में से एक थे। कबीर की पत्नी का नाम लोई था, कमाल और कमाली इनकी संतानें थीं।जुलाहा परिवार में पालन पोषण हुआ, संत रामानंद के शिष्य बने और अलख जगाने लगे। कबीर सधुक्कड़ी भाषा में किसी भी सम्प्रदाय और रूढ़ियों की परवाह किये बिना खरी बात कहते थे। कबीर ने हिंदू-मुसलमान समाज में व्याप्त रूढ़िवाद तथा कट्टरपंथ का खुलकर विरोध किया।
कबीर पढ़े-लिखे नहीं थे- 'मसि कागद छूवो नहीं, कलम गही नहिं हाथ।' उन्होंने स्वयं ग्रंथ नहीं लिखे, जो कुछ कहा उनके शिष्यों ने उसे लिख लिया। कबीर की वाणी का संग्रह 'बीजक' के नाम से प्रसिद्ध है। इसके तीन भाग हैं- रमैनी, सबद और साखी यह पंजाबी, राजस्थानी, खड़ी बोली, अवधी, पूरबी, ब्रजभाषा आदि कई भाषाओं की खिचड़ी है।
कबीर के समय का समाज कई तरह की कुरीतियों से भरा पड़ा था। जाति-पाति, छुआछूत, ऊँच-नीच, हिन्दू-मुसलमान वैमनष्य, बाहरी आडम्बर, दिखावा आदि। कबीर के लिए इस सीलन भरे समाज में साँस ले पाना कठिन होता जा रहा था। उन्होंने समाज की इन तमाम कुरीतियों और विसंगतियों का विरोध करना तय किया और साथ ही साथ जीवन की व्यावहारिक-नैतिक बातों का प्रचार-प्रसार भी। कबीर गाँव-गाँव घूमते और गुरु के महत्त्व, साधु के लक्षण तथा जीवन की व्यावहारिक बातों का बखान करते, जिन्हें उनके शिष्य लिपि-बद्ध कर लिया करते। कबीर ने मध्यकालीन समाज में एक सामाजिक कार्यकर्ता की भूमिका निभाई । उन्होंने आजीवन मानवीय और सामाजिक बुराइयों के विरुद्ध संघर्ष किया।
कबीर ने सच्चे गुरु को ईश्वर के समान माना है। उनके अनुसार सच्चे गुरु की महिमा असीम है जिसकी सीमा का अंदाजा लगाना असंभव है। सच्चे गुरु अपने विद्यार्थियों के मन की आँखें खोलकर उन्हें जीवन की वास्तविकता के दर्शन करवाते हैं।
सतगुरु की महिमा अनंत, अनंत किया उपकार।
लोचन अनंत उघाड़िया, अनंत दिखावन हार॥
कबीर के अनुसार संसार रूपी मोह-माया से मुक्ति सिर्फ़ गुरु के सच्चे ज्ञान से ही संभव है। संसार की मोह-माया मनुष्य को अपनी ओर आकर्षित करती है और मनुष्य मोह-माया में फँसकर नष्ट हो जाता है। माया की लौ मनुष्य रूपी पतंगे को अपनी ओर खींचती है। मनुष्य उसी लौ के चारों ओर मँडरा कर अपने प्राण दे देता है। सच्चे गुरु द्वारा दिया ज्ञान ही मनुष्य को सांसारिक मोह-माया से मुक्त रखता है।
माया दीपक नर पतंग, भ्रमि-भ्रमि इवैं पड़ंत।
कहै कबीर गुरु ग्यान ते, एक आध उबरंत॥
कबीर कहते हैं कि व्यक्ति की महानता उसके जन्म से नहीं बल्कि उसके द्वारा किए गए कर्म से निर्धारित होती है। उच्च कुल में जन्म ले लेने से उस व्यक्ति में सगुण नहीं आ जाते हैं। ठीक उसी प्रकार जैसे सोने के बर्तन में मदिरा भर दी जाए तो मदिरा की वजह से उस स्वर्ण पात्र की गरिमा कम हो जाती है। कबीर सदाचार और उच्च कर्म को जीवन का महत्त्वपूर्ण अध्याय मानते हैं।
ऊँचे कुल का जनमिया, जे करनी ऊँच न होइ।
सुबरण कलस सुरै भर्या, साधू निंदा सोइ॥
कबीर का मानना है कि सत्य और ईश्वर की प्राप्ति मन के विकार को दूर करने से होता है न कि बाहरी आडम्बर और दिखावा करने से होता है। मनुष्य को अपने बालों को काटने की अपेक्षा मन के दोषों को दूर करना चाहिए।
केसन कहा बिगाड़िया, जो मूँडै सौ बार।
मन को काहे न मूँडिए, जामै भरा विकार॥
कबीर ने आलोचकों को महत्त्व दिया है। हमारी कमियों को बतलाने वाला मनुष्य ही वास्तविक रूप में हमारा मित्र हो सकता है। कबीर ने मनुष्य के आचरण की शुद्धता पर विशेष जोर देते हुए कहा है कि हमें आलोचकों की अवेहलना नहीं करनी चाहिए बल्कि संभव हो तो उन्हें अपने आँगन में ही एक कुटिया बनवा कर रख लेना चाहिए क्योंकि वे हमारी कमियों से हमें अवगत कराएँगे तो हम उन कमियों को दूर करने का प्रयास करेंगे जिससे हमें अपने चरित्र को सुधारने का काम कर सकें।
निंदक नियरे राखिए, आँगन कुटी छवाइ।
बिन साबुन पाणी बिना, निरमल करै सुभाइ॥
कबीर कहते हैं कि एक ज्ञानी व्यक्ति समाज को ज्ञान देता , समाज को परम सत्य की पहचान करवाता है। अत: हम मनुष्यों को ज्ञानी व्यक्ति की जाति, रंग, धर्म, वर्ण आदि नहीं देखनी चाहिए, उसे उसके ज्ञान से आँकना चाहिए। तलवार की महत्ता उसके धार से होती है, उसके म्यान की सजावट से नहीं।
जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिए ज्ञान।
मोल करो तलवार का, पड़ा रहने दो म्यान॥
कबीर ने इस शरीर को दस दरवाजे का पिजरा बताया है जिसमें आत्मा रूपी पंछी रहती है। आश्चर्य की बात यह है कि दस दरवाजे वाले इस शरीर में आत्मा वास कैसे करती है। उसके इस शरीर रूपी पिजरे को छोड़कर उड़ जाने में कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए।
कबीर ने वाणी के महत्त्व को दर्शाया है। शब्द ही ब्रह्म है। अत: हमें बोलते समय खूब सोच-विचार कर मन रूपी तराजू में तौलकर ही बोलना चाहिए।
बोली एक अमोल है, जो कोई बोलै जानि।
हिये तराजू तैलिके, तब मुख बाहर आनि॥
कबीर ने जीवन में नैतिकता को विशेष महत्त्व दिया है। उन्होंने लगभग छह सौ वर्ष पूर्व अपने नीतिपरक दोहों में जिन तथ्यों को स्पष्ट किया था वे आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं। कबीर ने कहा था कि सोना, सज्जन व्यक्ति और साधुजन टूटने पर या रूठने पर फिर से मिल जाते हैं। लेकिन दुष्ट व्यक्ति कुम्हार के उस घड़े के समान हैं जिसमें एक धक्के से दरार पड़ जाती है तो फिर वह जुड़ती नहीं है।
सोना, सज्जन, साधु-जन, टूटि जुरै सौ बार।
दुर्जन, कुंभ कुम्हार के, एकै धका दरार॥
कबीर ने व्यक्ति के माध्यम से दिशाविहीन समाज को सुधारने का प्रयास किया। कबीर अनपढ़ थे किन्तु एक संत की भाँति उन्होंने सम्पूर्ण समाज के लिए चिंतन किया।
सुखिया सब संसार है, खावै और सोवै।
दुखिया दास कबीर है जागै अरू रोवै॥
भारत महिमा
जयशंकर प्रसाद
प्रश्न - "भारत महिमा" कविता द्वारा कवि ने भारत की किन विशेषताओं का वर्णन किया है? इस कविता का संदेश क्या है?
उत्तर - जयशंकर प्रसाद मूलत: छायावादी कवि हैं। छायावादी काव्य में प्रकृति-प्रेम और सौन्दर्य के प्रति अपार स्नेह के साथ-साथ भारतीय संस्कृति के प्रति निष्ठा और राष्ट्र-प्रेम की भावना भी अभिव्यक्त हुई है। प्रसाद ने अपने साहित्य के माध्यम से भारत के गौरवपूर्ण इतिहास को प्रस्तुत किया है।
"भारत महिमा" गीत जयशंकर प्रदास द्वारा लिखित "स्कन्दगुप्त" नाटक में देवसेना द्वारा गाया गया है। कवि भारतवर्ष की महिमा की प्रसंशा करते हुए कहते हैं कि सूर्य की पहली किरण भारतभूमि पर ही पड़ती है। यह ऐसा प्रतीत होता है कि सूर्य अपनी करणों की भेंट भारतभूमि को देता है। सूर्य की किरणें जब हिमालय पर पड़ती है तब ओस की बूँदें हीरे के कणों की भाँति चमकने लगती है अर्थात् उषा हँसकर भारत का स्वागत करती है और उसे हीरों का हार पहनाती है। कवि कहना चाहते हैं कि भारत में ही सर्वप्रथम ज्ञान रूपी सूर्य का उदय हुआ, वेद-पुराण की रचना हुई जिसके बाद हम सम्पूर्ण विश्व में ज्ञान का प्रचार-प्रसार करने लगे। इस प्रकार अज्ञानता का अंधकार नष्ट हो गया और सम्पूर्ण विश्व शोकरहित हो गई।
"जगे हम लगे जगाने विश्व, लोक में फैला फिर आलोक।
व्योम-तम-पुंज हुआ नष्ट, अखिल संसृति हो उठी अशोक॥"
कवि ने कई पौराणिक पात्रों द्वारा भी भारत की विशेषताओं का उल्लेख किया है। कवि कहते हैं कि माता सरस्वती ने अपने कोमल हाथों में वीणा धारण की और संगीत छेड़ा जिससे सामवेद की ऋचाएँ सात नदियों (सिन्धु, रावी, सतलुज, झेलम, सरस्वती, चेनाब तथा व्यास) से घिरे आर्यावर्त में गूँज उठीं। आदिपुरुष मनु ने प्रलय के बाद सृष्टि को बीज रूप में सहेज कर खत्म होने से बचाया। महर्षि दधीचि ने राक्षस वृत्रासुर के संहार के लिए तथा मानव-जाति की रक्षा के लिए अपनी अस्थियों का सहर्ष दान कर दिया। दधीचि की हड्डियों से ही देवराज इन्द्र ने वज्रास्त्र बनाया जिससे वृत्रासुर का संहार संभव हुआ। इस देश में मर्यादा-पुरुषोत्तम राम जैसे महानायक का जन्म हुआ जिसने वनवास जीवन से हार नहीं मानी, तमाम कठिनाइयों, मुश्किलों, अड़चनों आदि का सामना किया तथा वानरों की सहायता से समुद्र पर सेतु का निर्माण किया, लंका पर चढ़ाई की और अत्याचारी रावण का वध कर अपने परम-कर्त्तव्य का पालन किया।
भारत वैदिक काल से ही दया, उदारता तथा परोपकार की भूमि रही है। वैदिक काल में कर्मकांड के नाम पर पशुओं की बलि दी जाती थी। गौतम बुद्ध ने दया और परोपकार पर आधारित बौद्ध धर्म की स्थापना की और बलि-प्रथा का निषेध किया।
"धर्म का ले-लेकर जो नाम हुआ करती बलि, कर दी बंद।
हमीं ने दिया शांति संदेश,सुख होते देकर आनंद ॥
भारतवासियों ने ही सर्वप्रथम संसार को शांति का संदेश दिया।
कलिंग के महा-युद्ध के उपरांत सम्राट अशोक ने हिंसा का त्याग किया और बौद्ध धर्म
स्वीकार कर अनेक देशों में बौद्ध धर्म का प्रचार किया। उन्होंने अपने पुत्र
महेन्द्र और पुत्री संघमित्रा को बौद्ध भिक्षु बनाकर श्रीलंका भेजा।
भारतवर्ष ही वह भूमि है जहाँ चंद्रगुप्त ने यूनानी विजेता
सेल्यूकस को पराजित कर दया का परिचय देते हुए क्षमादान दिया। सम्राट अशोक के भेजे
गर बौद्ध-भिक्षुओं ने चीन में बौद्ध धर्म का प्रचार किया। बौद्ध भिक्षुओं ने
बर्मा के लोगों को बौद्ध-धर्म के तीन रत्नों – बुद्ध, संघ और धर्म का ज्ञान
कराया। सिंहल को पंचशील ( सत्य, अहिंसा, ब्रह्मचर्य, मादक पदार्थों का त्याग और
अस्तेय।) के अंगों की शिक्षा दी।
“यवन को
दिया दया का दान, चीन को मिली धर्म की दृष्टि।
मिला था
स्वर्ण-भूमि को रत्न, शील की सिंहल को भी दृष्टि॥
कवि भारतभूमि की विशेषताओं का वर्णन करते हुए कहते हैं कि
हम भारतीयों ने किसी से कभी भी कुछ नहीं छीना बल्कि हमने शरणार्थियों को शरण दी।
हम भारतवासी सदा विनम्र व चरित्रवान रहे हैं। हमारे दिलों में सभी के लिए करुणा
है, हम किसी को कष्ट में नहीं देख सकते हैं। अतिथि सदैव हमारे लिए देवतुल्य रहे
हैं। हमारे शरीर में दिव्य-आर्यों का रक्त संचार कर रहा है।
वही है
रक्त, वही है देश, वही साहस है, वैसा ज्ञान।
वही है
शांति, वही है शक्ति, वही हम दिव्य आर्य संतान॥
अत: हम कह सकते हैं कि जयशंकर प्रसाद ने “ भारत महिमा”
कविता द्वारा भारत की प्राचीन सभ्यता, संस्कृति और ज्ञान का गुणगान करते हुए आज
की पीढ़ी में उदारता, शांतिप्रियता, निर्भीकता तथा जोश, उमंग, साहस और
कर्त्तव्यपरायणता का भाव भरने की सफल कोशिश की है।
मैं हूँ उनके साथ
मैं हूँ उनके साथ
हरिवंशराय बच्चन
प्रश्न - "सीधी रखते अपनी रीढ़" पंक्ति का भाव स्पष्ट करते हुए बताइए कि प्रस्तुत कविता के अनुसार किस प्रकार के लोगों को जीवन में सफलता प्राप्त होती है ?
उत्तर - हरिवंशराय बच्चन हिन्दी के प्रमुख कवि और लेखक हैं।'हालावाद' के प्रवर्तक बच्चन जी हिन्दी कविता के उत्तर छायावाद काल के प्रमुख कवियों मे से एक हैं। उनकी सबसे प्रसिद्ध कृति मधुशाला है। ये छायावाद के आस्थावादी कवि हैं इनकी रचनाओं में आस्था, स्वप्न, विद्रोह और निर्माण की गूँज सुनाई पड़ती है।
इनको बाल्यकाल में 'बच्चन' कहा जाता था जिसका शाब्दिक अर्थ 'बच्चा' या संतान होता है। बाद में ये इसी नाम से मशहूर हुए। इन्होंने कायस्थ पाठशाला में पहले उर्दू की शिक्षा ली जो उस समय कानून की डिग्री के लिए पहला कदम माना जाता था। उन्होंने प्रयाग विश्वविद्यालय से अंग्रेजी में एम. ए. और कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय से अंग्रेजी साहित्य के विख्यात कवि डब्लू बी यीट्स की कविताओं पर शोध कर पीएच. डी. पूरी की।
इन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय में अध्यापन-कार्य किया। बाद में भारत सरकार के विदेश मंत्रालय में हिन्दी विशेषज्ञ रहे। इन्हें राज्य सभा का सदस्य भी मनोनीत किया गया।
इनकी भाषा सहज, भावपूर्ण और भाषाई मिठास लिए हुई है। इनकी प्रमुख रचनाएँ हैं - मधुशाला, मधुबाला, मधुकलश, निशा-निमंत्रण, दो चट्टानें (साहित्य अकादमी), बुद्ध और नाचघर, खादी के फूल, चार खेमे चौंसठ खूँटे, एकांत संगीत, मिलन यामिनी आदि।
आज के दौर में जहाँ इनसान मान, सम्मान, प्रतिष्ठा और पद की महत्वाकांक्षा में किसी के भी सामने झुकने को तैयार बैठा हो वहाँ अपनी रीढ़ को सीधी रखने वालों की कमी को महसूस किया जाना स्वाभाविक है।
"मैं हूँ उनके साथ" कविता में कवि उनके साथ खड़ा रहना चाहता है जिसने अपनी रीढ़ की हड्डी को सीधा रखा है और वह हर तरह के अन्याय, शोषण और हिंसा के खिलाफ तनकर खड़ा है। कवि का मानना भी है कि जो इनसान हर तरह के अभाव, अज्ञान और संताप से लड़ने की हिम्मत रखता है, सफलता भी उसी को प्राप्त होती है।
ऐसे लोग अपनी रीढ़ को सीधी रखते हैं अर्थात वे हमेशा तनकर चलते हैं और जीवन में आने वाली कठिनाइयों के सामने हार नहीं मानते हैं। वे कभी भी अपने न्यायसम्मत अधिकारों को नहीं त्यागते हैं। वे कभी भी अत्याचारी के सामने सिर झुकाकर नहीं खड़े होते और न ही जीवन में किसी भी तरह के अत्याचार को सह लेते हैं। ऐसे लोग चाहे अकेले हों या फिर उनके साथ जन सैलाब, सफलता उन्हीं को प्राप्त होती है।
"मैं हूँ उनके साथ जो, सीधी रखते अपनी रीढ़।"
हरिवंशराय बच्चन ने अपनी कविता अग्निपथ में लिखा है -
"तू न थकेगा कभी
तू न थमेगा कभी
तू न मुड़ेगा कभी
कर शपथ कर शपथ कर शपथ
कवि के अनुसार संघर्ष करने वाला व्यक्ति अपने विचारों और मन के भावों को बिना किसी भय के व्यक्त करता है । उसे किसी भी आततायी की तलवार नहीं रोक सकती। वह किसी भी परिस्थिति में थककर थमता नहीं है बल्कि सदैव आगे बढ़ता रहता है।
जिनकी जिह्वा पर होता है
उनके अंतर का अंगार।
नहीं जिन्हें चुप कर सकती है
आततायियों की शमशीर।
जिस व्यक्ति में आगे बढ़कर पर्वत रूपी कठिनाइयों का सामना करने का साहस होता है। जो मार्ग में आने वाली हर बाधाओं को अपने पाँव की ठोकर से उड़ा देता है, ऐसे लोगों को कोई बंधन बाँध नहीं सकती। जीवन में सफलता उन्हीं को प्राप्त होती है जो प्रत्येक कठिनाई का डट कर सामना करते हैं।
जो अपने कंधों से पर्वत
से बढ़कर टक्कर लेते हैं।
पथ की बाधाओं को जिनके,
पाँव चुनौती देते हैं।
कवि कहते हैं कि जीवन में सफलता उन्हीं को प्राप्त होती है जो व्यापक मानव जाति के कल्याण के लिए अपने घर-बार की चिन्ता नहीं करते अर्थात उनके लिए समस्त समाज ही उनका परिवार होता है। वे सबकी भलाई में ही अपनी भलाई देखते हैं। ऐसे लोग एक बार कठिनाई रूपी समुद्र में कूद पड़े तो रक्षा के लिए किनारे की ओर नहीं देखा करते।
जो चलते हैं अपने छप्पर
के ऊपर लूका धरकर,
हार-जीत का सौदा करते,
जो प्राणों की बाजी पर
कूद उदधि में नहीं पलटकर,
जो फिर ताका करते तीर।
हिन्दी के महाकवि निराला ने लिखा है - " होगी जय होगी जय हे! पुरुषोत्तम नवीन" अत: जो व्यक्ति जीवन में अपने पुरुषार्थ पर दृढ़ यकीन रखता है और मानव-कल्याण के लिए कार्यरत रहता है उसे जीवन में सफलता प्राप्त करने से कोई नहीं रोक सकता।
विनय और भक्ति
सूरदास
प्रश्न - "विनय और भक्ति" के आधार पर सूरदास की भक्ति भावना का परिचय दीजिए।
उत्तर
कृष्ण भक्ति की अजस्र धारा को प्रवाहित करने वाले भक्त कवियों में सूरदास का नाम सर्वोपरि है। हिन्दी साहित्य में भगवान श्रीकृष्ण के अनन्य उपासक और ब्रजभाषा के श्रेष्ठ कवि महात्मा सूरदास हिंदी साहित्य के सूर्य माने जाते हैं। सूरदास हिन्दी साहित्य में भक्ति काल के सगुण भक्ति शाखा के कृष्ण-भक्ति उपशाखा के महान कवि हैं।
सूर ने वात्सल्य, श्रृंगार और शांत रसों को मुख्य रूप से अपनाया है। सूर ने अपनी कल्पना और प्रतिभा के सहारे कृष्ण के बाल्य-रूप का अति सुंदर, सरस, सजीव और मनोवैज्ञानिक वर्णन किया है। बालकों की चपलता, स्पर्धा, अभिलाषा, आकांक्षा का वर्णन करने में विश्व व्यापी बाल-स्वरूप का चित्रण किया है।
सूरदास जी द्वारा लिखित पाँच ग्रन्थ बताए जाते हैं - सूरसागर, सूरसारावली, साहित्य-लहरी, नल-दमयन्ती, ब्याहलो ।
सूरदास सगुण भक्ति के उपासक थे इसलिए उन्होंने ईश्वर के रूपयुक्त आकार और लीलाओं का वर्णन किया है। इनकी भक्ति पूर्ण रूप से प्रेम पर आधारित है। सूरदास के अनुसार सिर्फ़ ज्ञान से ईश्वर को प्राप्त नहीं किया जा सकता। जो मन और वाणी से अगोचर है उसका वर्णन करना बहुत कठिन है। सूर कहते हैं –
“अविगत-गति कछु कहत न आवै।“
सूर कहते हैं कि जिस प्रकार एक गूँगा फल के स्वाद को प्राप्त तो कर लेता है किन्तु उसे शब्दों के माध्यम से व्यक्त नहीं कर पाता है, ठीक उसी प्रकार निर्गुण ब्रह्म को ज्ञान और अनुभव के आधार पर प्राप्त तो किया जा सकता है लेकिन उसके रूप, रंग, गुण, जाति आदि के विषय में जानना असम्भव है।
“रूप-रेख-गुन-जाति-जुगति बिनु, निरालम्ब कित धावै।“
मन जिसकी कल्पना नहीं कर सकता तथा वाणी जिसकी अभिव्यक्ति नहीं कर सकती उस ब्रह्म की उपासना कैसे की जाए ? सूरदास कहते हैं कि साधारण मनुष्य ईश्वर की भक्ति कैसे करेंगे ? इसलिए सूर निराकार ब्रह्म की उपासना की अपेक्षा साकार ब्रह्म की उपासना पर बल देते हैं जिसे प्रेम, भक्ति और विनम्र प्रार्थना से प्राप्त किया जा सकता है।
सूरदास कहते हैं कि उनका मन कृष्ण भक्ति करने के अतिरिक्त कहीं से भी सुख की प्राप्ति नहीं कर सकता। कृष्ण की शरण ही उन्हें सुख और शांति प्रदान कर सकती है। जिस प्रकार समुद्र के बीच जहाज पर बैठे पक्षी के लिए अथाह समुद्र में सिर्फ़ जहाज का ही एकमात्र सहारा होता है, ठीक उसी प्रकार काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि से भरे इस संसार रूपी समुद्र में भगवान कृष्ण ही एकमात्र सहारा और भरोसा हैं जिनके सहारे इस भव सागर रूपी संसार से मुक्ति सम्भव है।
“मेरा मन अनत कहाँ सुख पावै।“
कवि कहते हैं कि कमल जैसे नयनों वाले भगवान कृष्ण की भक्ति को छोड़कर अन्य देवी-देवताओं की आराधना क्यों करें ? जो व्यक्ति प्यास लगने पर पवित्र गंगा जल छोड़कर कुआँ खोदने का प्रयास करता है, उसे मूर्ख या दुष्ट मति वाला माना जाता है। जिस भँवरे ने कमल का रसपान किया हो उसे कड़वे फल मधुर कैसे लगेंगे ? सूरदास अपनी भक्ति का प्रतिपादन करते हुए कहते हैं कि भगवान कृष्ण की भक्ति कामधेनू गाय की भाँति है जो हर मनोकामना पूरी करती है। ऐसी स्थिति में वह व्यक्ति मूर्ख माना जाएगा जो कामधेनू को छोड़कर बकरी का दूध दुहने जाएगा।
“परम-गंगा को छाँड़ि पियासौ, दुरमति कूप खनावै।“
अत: सूरदास ने सगुण भक्ति पर जोर दिया है। उनका मानना है कि कृष्ण भक्ति चमत्कारिक लाभ पहुँचाता है। कृष्ण के चरणों की वन्दना करने से लंगड़ा व्यक्ति भी पर्वत पार कर सकता है। अंधा व्यक्ति आँखें पाकर सब कुछ देख सकता है। बहरा फिर से सुन सकता है और गूँगा व्यक्ति बोलने लगता है।
सूरदास ने श्रीकृष्ण के प्रति अपना अनन्य भक्ति भाव प्रकट किया है।
हल्दीघाटी
सोहनलाल द्विवेदी
प्रश्न - माई का लाल किसे कहा गया है ? कविता के आधार पर बताइए कि हल्दीघाटी का भारतीय इतिहास में क्या महत्त्व है तथा कवि हल्दीघाटी को किस रूप में देखता है और क्या प्रार्थना करता है ?
उत्तर - सोहनलाल द्विवेदी जी आधुनिक हिन्दी कविता में प्रमुख स्थान रखते हैं। इनकी कविताओं में राष्ट्रीय चेतना का संचार हुआ है जिसने हर भारतीय को देश-भक्ति की भावना से भर दिया है। इनकी कविताओं का मुख्य स्वर राष्ट्रीयता की भावना से परिपूर्ण है। द्विवेदी जी गाँधीवादी विचारधारा से भी प्रभावित हैं। हल्दीघाटी की इनकी प्रमुख कविताओं में से एक है जिसमें देश-प्रेम और त्याग की भावना अभिव्यक्त हुई है। प्रस्तुत कविता "हल्दीघाटी" में कवि ने हल्दीघाटी का गुणगान किया है और उसे एक पावन तीर्थस्थल के रूप में प्रस्तुत किया है जहाँ इस धरती के लाल वीर महाराणा प्रताप ने वीरता का प्रदर्शन किया था और देश को मुगलों की गुलामी से आज़ाद करने की वीरतापूर्ण कोशिश की थी।
बैरागन-सी बीहड़ वन में,
कहाँ छिपी बैठी एकांत,
माता आज तुम्हारे दर्शन को -
मैं हूँ व्याकुल उद्भ्रांत
कवि को हल्दीघाटी एक तीर्थस्थल के समान लगता है जहाँ देश पर मर-मिटने वाले अनेक वीर शहीद पैदा हुए। कवि कहते हैं कि इसी धरती पर सर्वप्रथम महाराणा प्रताप ने मुगलों से स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए रण-गान गाया था अर्थात् देश की स्वतंत्रता के लिए अपने वीर योद्धाओं के साथ बलिदान दे दिया था।
तुमने स्वतंत्रता के स्वर में,
गाया प्रथम-प्रथम रण गान।
दौड़ पड़े रजपूत बाँकुरे,
सुन-सुनकर आतुर आह्वान।
कवि उसी हल्दीघाटी से प्रार्थना करता है कि हे माँ! तुम एकबार फिर से वही मृत्यु का मधुर गान गाओ जिससे हम भारतीय अपने देश के लिए मतवाले होकर अपना तन-मन-धन सब उसके चरणों में न्योछावर करने के लिए तैयार हो जाएँ।
इस प्रकार कवि हल्दीघाटी की महत्ता का गुणगान करते हुए महाराणा प्रताप के शौर्य को याद करते हैं और भारतवासियों से अपनी धरती माँ की रक्षा करने का आह्वान करते हैं।
Very nice sir
जवाब देंहटाएं